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राग विहाग तहां लै चल री! जहां जादौपति प्यारो॥ टेक ॥ नेमि निशाकर बिन यद्र चन्दा तन मन दहत सकल री॥ किरन किधौं नाविक-शर-तति कै, ज्यों पावक की झलरी। तारे हैं अंगारे सजनी, रजनी राकसदल री॥१॥ इह विधि राजुल राजकुमारी, विरह तपी वेकल री। 'भूधर' धन्न शिवासुत बादर, बरसायो समजल री ॥२॥
हे सखी ! मुझे वहाँ ले चल जहाँ यदुवंश के स्वामी ( मेरे) प्रिय श्री नेमिनाथ हैं । नेमिनाथरूपी चन्द्रमा के बिना, इस लौकिक चन्द्रमा से सारे तन-मन में दाह हो रहा है। उसकी किरणें बाण की चुभन की तरह तीखी व मधुमक्खी के डंक के समान काट रही हैं, उसकी जलन आग की लपट जैसी है। तारे अंगारे के समान व रात्रि राक्षसदल-सी भयावनी लगती है। __इस प्रकार राजकुमारी राजुल विरह-ताप से व्याकुल हो रही है। भूधरदास कहते हैं कि समतारूपी जल की वर्षा करनेवाले भगवान नेमिनाथरूपी बादल धन्य हैं।
नाविक (नावक)-शर - छोटा बाण, मक्खी का इंक। शिवासुत = शिवादेवी के पुत्र नेमिनाथ । बादर - बादल।
भूधर भजन सौरभ