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________________ राग सोरठ लगी लो नाभिनंदनसों। जपत जेम चकोर चकई, चन्द भरता को॥ जाउ तन-धन जाउ जोवन, प्रान जाउ न क्यों। एक प्रभुकी भक्ति मेरे, रहो ज्यों की त्यों ॥१॥ और देव अनेक हेही, कछु न पायो हौं। ज्ञान खोयो गांठिको, धन करत कुवनिज ज्यों॥२॥ पुत्र-मित्र कलत्र ये सब, सगे अपनी गों। नरक कूप उद्धरन श्रीजिन, समझ 'भूधर' यो॥३॥ हे नाभिनन्दन ! जिस प्रकार वियोगी चकवा-चकवी सर्य के आगमन के प्रति आशान्वित होकर मिलन की घड़ियों की प्रतीक्षा करते हैं, उसी प्रकार (ऊर्ध्वस्वभावी लौ की भाँति) मैं भी आपके गुणों के प्रति आकर्षित हो रहा हूँ। हे आदीश्वर ! मेरा तन, धन, यौवन व प्राण सभी भले ही चले जाएँ पर यही चाह है कि आपके प्रति मेरी भक्ति यथावत अक्षुण्ण बनी रहे। हे आदिदेव! मैंने अनेक देवताओं की सेवा-भक्ति की, परन्तु मुझे कुछ भी प्राप्त नहीं हुआ बल्कि जैसे खोटा व्यापार करने से धन की हानि होती है, वैसे ही मैंने अपने सम्यक् ज्ञानधन की हानि की है। हे श्री जिन ! पुत्र, मित्र, स्त्री, सब अपने-अपने स्वार्थवश सगे हैं। भूधरदास समझाते हैं कि इस संसार के नरक-कूप से उद्धार का एकमात्र साधन आपके प्रति की गई भक्ति ही है। जेम = जिस प्रकार । कुवनिज .. खोटा व्यापार | गों = गरज, स्वार्थ । भूधर भजन सौरभ
SR No.090108
Book TitleBhudhar Bhajan Saurabh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTarachand Jain
PublisherJain Vidyasansthan Rajasthan
Publication Year
Total Pages133
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Devotion
File Size2 MB
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