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________________ (८३) राग धमाल सारंग होरी खेलौंगी, घर आये चिदानंद कन्त॥टेक ।। शिशिर मिथ्यात गयो आई अब, कालकी लब्धि बसन्त ॥होरी.॥ पिय मँग खेलनको टप गलियो! तासी काल अनन्त। भाग फिरे अब फाग रचानों, आयो बिरहको अन्त॥१॥होरी.॥ सरधा गागरमें रुचिरूपी, केसर घोरि तुरन्त। आनंद नीर उमग पिचकारी, छोड़ो नीकी भन्त॥२॥होरी.॥ आज वियोग कुमति सौतनिकै, मेरे हरष महन्त । 'भूधर' धनि यह दिन दुर्लभ अति, सुमति सखी विहसन्त ।। ३ ।। होरी.॥ हे सखी ! आज चेतनरूपी स्वामी मेरे घर आये हैं अर्थात् आज इस जीवात्मा को अपने चेतनस्वरूप की पहचान हुई हैं, इसलिए मैं आज उनसे होली खेलूँगी। मिथ्यात्वरूपी शीत ऋतु का अन्त हो गया है और अब काल-लब्धिरूपो बसन्त ऋतु का प्रादुर्भाव हुआ है। सुमति कहती है कि अपने स्वामी आत्मा के साथ खेलने के लिए हम अनन्तकाल तक तरसती रही हैं । अब भाग्योदय हुआ है, विरह का अन्त हुआ हैं इसलिए मिलन के अवसर पर होली का उत्सव मनाना है। श्रद्धारूपी मटकी में रुचिरूपी केसर तुरन्त घोलकर उमगते हुए आनंदरूपी जल से भरी पिचकारी जी भरकर स्वामी पर छोडूंगी। आज स्वामी का कुमति से वियोग हुआ है अर्थात् कुमति का (दुर्बुद्धि, मिथ्याबुद्धि) का नाश हुआ है। यह मेरे लिए अत्यन्त हर्ष की बात है। भूधरदास कहते हैं कि आज का दिन धन्य है क्योंकि यह दुर्लभ अवसर बहुत कठिनता से प्राप्त हुआ है इसलिए सुमति सखी आज अत्यन्त प्रमुदित है, प्रसन्न है। ११४ भूधर भजन सौरभ
SR No.090108
Book TitleBhudhar Bhajan Saurabh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTarachand Jain
PublisherJain Vidyasansthan Rajasthan
Publication Year
Total Pages133
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Devotion
File Size2 MB
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