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कर्मास्रवनिरोधात्मा चिद्भावो भावसंवरः ।
व्रताद्यः कर्मसंरोधः स भवेद्रव्यसंवरः ॥ ३८६ ॥
कर्मों के आने के निरोध रूप चैतन्य का भाव भावसंवर है । व्रतादि से कर्म का रोकना द्रव्य संवर है ।
हठात्कार स्वभावाभ्यां जायते कर्मनिर्जरा ।
विपाका स्वपाकेति द्विविधा सा यथाक्रमम् ॥ ३६० ॥
कर्म निर्जरा हठात्कार और स्वभाव वाली होती है । वह यथाक्रम दो प्रकार की होती है - विषाका और स्वापाका |
कर्मक्षयाय यो भावो भावमोक्षो भवत्यसौ ।
जायते द्रव्यमोक्षस्तु जीवकर्मपृथविक्रया ॥ ३६१॥
कर्म क्षय के लिए जो भाव हो, वह भावमोक्ष होता है । जीव और कर्म का पृथक्करण द्रव्यमोक्ष है ।
इत्येवं सप्ततत्वानि तान्येव प्रभवन्त्यपि ।
युक्तानि पुण्यपापाभ्यां पदार्था नव संस्मृताः ॥३६२॥
इस प्रकार सात तत्व होते हैं, वे ही पुण्य और पाप से युक्त होकर नव पदार्थ हो जाते हैं, ऐसा माना गया है ।
पुरोक्तलक्षणः जीवः सम्यवत्वव्रतभूषितः ।
पुण्यं तद्विपरीतो यः स पापमिति कीर्त्यते ॥ ३६३ ॥
सम्यक्त्व और व्रत से भूषित हुआ पूर्वोक्त लक्षण वाला जीव पुण्य है | उससे जो विपरीत है, वह पाप कहा जाता है ।