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एवं द्रव्यादि सन्दोहे श्रद्दधानं यथार्थतः । श्रनादिकर्मसम्बन्धविच्छित्तो जायतेऽङ्गिनाम् ॥ ३६४ ॥
इस प्रकार द्रव्यादि के समूह का यथार्थ श्रद्धान अनादि कर्म सम्बन्ध की विच्छित्ति होने पर प्राणियों के होता है ।
चतुर्गतिभवो भव्यः संज्ञी पूर्णः सुलेश्यकः ।
जागरी लब्धिमान् शुद्धो ज्ञानी सम्यक्त्वमर्हति ॥ ३६५॥
चारों गतियों में उत्पन्न भव्य, संज्ञी, सुलेश्या वाला, जाग्रत, लब्धियुक्त, शुद्ध, तथा ज्ञानी सम्यक्त्व के योग्य होता है ।
वारणं तस्य चत्वारो ये चानन्तानुबन्धिनः । मिथ्यात्वमिश्रसम्यक्त्वं चेति ढङमोहसप्तकम् ॥ ३६६॥
इत्यास प्रकृतीनां नु सप्तानामुपशान्तितः । प्रोक्तौपशमिका दृष्टिः प्रशान्तपंकतोयवत् ॥ ३६७॥
उसके अनन्तानुबन्धी क्रोध, मान, माया और लोभ का अभाव, मिथ्यात्व, सम्यिग्मथ्यात्व और सम्यक्त्व इस प्रकार दर्शनमोह की सात प्रकृतियों की उपशान्ति से प्रपशमिक सम्यक् दर्शन कहा गया है । यह प्रशान्त कीचड़ वाले जल के समान होता है ।
सर्व स्पर्धकानां यः पाकाभावात्मकः क्षयः । सत्तात्मोपशमो यत्र क्षायोपशमिकं हि तत् ॥ ३६८ ॥
सर्वंघात स्पर्द्धकों का जो पाकाभावात्मक उदयाभावी क्षय है, जहाँ पर कि सत्तारूप उपशम होता है, वह क्षायोपशमिक है ।