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जिस प्रकार पदार्थों का लक्षण नयभेद से निश्चत किया जाता है, उसे सम्यग्ज्ञान रूपी नेत्र के धारकों ने अधिगम माना है।
द्रव्याणि षट्प्रकाराणि जोवोऽथ पुद्गलस्तथा ।
धर्माधर्मनभः काला अतस्तेषां प्ररूपणम् ॥३३७॥ द्रव्य छः प्रकार के होते हैं-जीव, पुद्गल, धर्म, अधर्म, आकाश तथा काल । अतएव उनका प्ररूपण किया जाता है।
जीवो हि सोपयोगात्मा कर्ता भोक्ता तनुप्रमः ।
स्वभावेनोर्ध्वगोऽमूर्तः संसारी सिद्धिनायकः ॥३३८॥ जीव उपयोगमयी कर्ता, भोक्ता, शरीर परिमाण, स्वभाव से ऊर्ध्वगामी, अमूर्त, संसारी अथवा सिद्धि का नायक है।
जीवितो दशभिः प्राणर्जीविष्यति च जीवति ।
स जीवः कथ्यते सद्भिर्जीवतत्वविदां वरै ॥३३६॥
जो दश प्राणों से जिया था, जिएगा तथा जी रहा है, उसे जीव तत्त्व को जानने वाले सज्जनों ने जीव कहा है।
जन्तो वो हि वस्त्वर्थ उपयोगः स च द्विधा ।
साकारोऽनिराकारो ज्ञानदर्शनभेदतः ॥३४०॥ जन्तु का भाव ही वस्तुभूत उपयोग पदार्थ है । वह ज्ञान और दर्शन के भेद से साकार और निराकार होता है। १ अस्मादग्रे ज्ञानोपयोगः साकारः, दर्शनोपयोगोऽनाकार: स चोपयोगलक्षण पुस्त. कद्वयेऽप्य पाठः।