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ऐहिकाश परित्यक्तो धर्मशास्त्रार्थतत्परः। रागद्वेषविनिमुक्तो दशधर्मसमन्वितः ॥३३२॥ निःशल्यो निरहंकारः परिग्रहपरिच्युतः ।
पक्षपातोज्झितः शान्तः स मुनिर्वन्धत भया ॥३३३॥
जो अट्ठाईस मूल गुणों से सदा विभूषित, रत्नत्रय के विभूषणों के कारण भेदाभेदनय से आक्रान्त, इस लोक की आशा का परित्यागी, धर्म शास्त्र के अर्थ में तत्पर, राग-द्वेष से रहित, दश धर्म से युक्त, निःशल्य, निरहंकार, परिग्रह से रहित, पक्षपात का त्याग किया हुआ तथा शान्त है, वह मुनि मेरे द्वारा वन्दित होता है ।
सूक्ष्मे जिनोदिते तत्त्वे नास्ति' चेन्महतो मतिः ।
प्राप्तादितं यथाम्नायं श्रद्धानं क्रियते तथां ॥३३४॥ सूक्ष्म, जिनोदित तत्त्व के प्रति यदि बृहद् बुद्धि न हो तो प्राप्त के द्वारा कहे हुए वचनों पर आम्नाय के अनुसार श्रद्धा करता है।
एवमाज्ञाभवो भावः प्ररूपितः समासतः । प्रतोऽधिगमभावस्य लक्षणं कथ्यते यथा ॥३३॥
इस प्रकार आज्ञा से उत्पन्न भाव का संक्षेप से प्ररूपण किया गया। अब अधिगम भाव का लक्षण कहा जाता है ।
निश्चीयते पदार्थानां लक्षणं नयभेदतः ।
सोऽधिगमोऽभिमन्तव्यः सम्यग्ज्ञानविलोचनैः ॥३३६॥ १ विरोधो नैव विद्यते ख.। 2 श्रद्धातव्यं मनीषिभिः ख.। ३ समाहितः ख.। ४ नव. ख.।।