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हर्ष से विकसित चित्त में पदार्थों के ज्ञान में जो भलीप्रकार रुचि होती है, उसे श्रद्धान माना गया है ।
प्राप्तागमयतीशानां तत्वानामल्पबुद्धितः ।
जिनाज्ञयंत्र विश्वासो भवत्याज्ञा हि सा परा ॥ ३२७॥
आप्त आगम और यतीशों के ( द्वारा कथित) तत्त्वों का अल्प बुद्धि से जिनाज्ञा से विश्वास रखना कि निश्चय से वह ही उत्कृष्ट आज्ञा है (सम्यक्त्व है )
द्याति कर्मक्षयोद्भूत केवलज्ञान रश्मिभिः । प्रकाशकः पदार्थानां त्रैलोक्योदरवर्तनाम् ॥ ३२८ ॥
सर्वज्ञः सर्वतोव्यापी त्यक्तदोषो ह्यवंच कः । देवदेवेन्द्रवन्द्यांराप्तो सौ परिकीर्तितः ॥ ३२६॥
घातिकर्मों के क्षय से उद्भूत केवलज्ञान रुपी रश्मियों से त्रैलोक्य के मध्य स्थित पदार्थों का प्रकाशक, सर्वज्ञ, सर्वव्यापी, दोष रहित, प्रवंचक तथा देव और देवेन्द्रों से जिसके चरण वन्दनीय हैं, वह प्राप्त कहा जाता है ।
पूर्वापरविरुद्धात्मदोष संधातवर्जितः ।
यथावद्वस्तु निर्णोतिर्यत्र स्यादागमो हि सः ।। ३३०॥
पूर्वापर विरुद्ध स्वरूप वाले दोष समूह से रहित यथावत् वस्तु का जहां निर्णय होता है, वह आगम है ।
विराजतेऽष्टविशत्या शुद्ध मूलगुणैः सदा । भेदाभेदनयाक्रान्तो रत्नत्रय विभूषणैः ॥ ३३१ ॥