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७३ असंयतगुणस्थानमतो वक्ष्ये चतुर्थकम् ।
सोपानमादिमं मोक्षप्रासादमधिरोहताम् ॥३२२॥
अब मैं चौथे असंयम गुणस्थान के विषय में कहँगा, यह मोक्ष रूपी महल पर चढ़ने वालों के लिए सीढ़ी आदि के तुल्य है।
तत्रौपशमिको भावः क्षायोपशमिकाव्हयः ।
क्षायिकेश्चेति विद्यन्ते त्रयो भावा जिनोदिताः ॥३२३॥ इस गुण स्थान में प्रौपशमिक, क्षायोपशमिक तथा इन तीन भावों की विधमानता जिनेन्द्र भगवान् ने कही है।
प्रक्षेषु विरतो नैव न स्थावरे वरागिषु।
द्वितीयानां कषायाणां विपाकादवतो यतः ॥३२४॥ वह इन्द्रियों के विषयों में विरत नहीं है तथा स्थावर और त्रस जीवों की हिंसा से विरत नहीं है, क्योंकि वह अप्रत्याख्यानावरण क्रोध, मान, माया और लोभ रुप कषायों के विपाक से अवती होता है ।
श्रद्धानं कुरुते भव्योह्याज्ञ याधिगमेन वा। . द्रव्यादीनां यथाम्नायं सम्यग्दृष्टिरसंयतः ॥३२५॥
असंयत सम्यग्दृष्टि भव्य आम्नाय के अनुसार अथवा परोपदेश से द्रव्यादि का श्रद्धान करता है।
परिच्छित्तौ पदार्थानां हर्षोल्लसितचेतसि । या रुचिर्जायते साध्वी तच्छद्धानमितिस्मृतम् ॥३२६॥