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अथ मिश्र गुणस्थानं प्रकथ्यते यथागमम् । क्षायोपशमिको भावो मुख्यत्वेनेह जायते ॥३०४॥
अब आगम के अनुसार मिश्र गणस्थान कहा जाता है । इसमें क्षायोपशमिक भाव मुख्य रूप से उत्पन्न होता है ।
मिश्र कर्मोदयाज्ज्जीवे पर्यायः सर्वघातिजः।
न सम्यक्त्वं न मिथ्यात्वं भावोऽसौ मिश्र उच्यते ॥३०॥ जात्यन्तर सर्वघाति के कार्यरूप सम्यग्मिथ्यात्व प्रकृति के । उदय से जीव में न केवल मिथ्यात्व परिणाम होता है और न सम्यक्त्व परिणाम होता है ।
अहिंसालक्षणो धर्मो यज्ञादिलक्षणोऽथवा। मन्यते समभावेन मिश्रकर्मविपाकतः ॥३०६॥
मिश्रकर्म के विपाक से अहिंसालक्षण धर्म अथवा यज्ञादिलक्षण धर्म को समभाव से मानता है।
जिनोक्ति मन्यते यद्वदन्योक्ति मन्यत तथा। देवे दोषोज्झिते भक्ति'स्तथैव दोषसंयुते ॥३०७॥
जिस प्रकार से जिनोक्ति को मानता है, उसी प्रकार से अन्य के कथन को भी मानता है। जिस प्रकार दोषरहित देव में भक्ति रखता है, उसी प्रकार दोषयुक्त के प्रति भी भक्ति रखता है।
निग्रन्था यतयो वन्द्यास्तथैव द्विजतापसाः।
यत्रैषा जायते बुद्धिमिश्र स्यात्तद्गुणास्पदप ॥३०८॥ १ भक्ति . ख ।