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शान्तिनामा गणी चेकः संप्राप्तो विहरन पुरीम्।
सौराष्ट्रां वल्लभी यावत्तत्र संतिष्ठते स्म सः ॥१६२॥
शान्ति नामक एक गणी नगर में विहार करता हुआ सौराष्ट्र देश की वलभी नगरी में ठहरा।
तत्राप्यभून्महाभीमं दुनिक्षमतिदुःसहम् ।
विदार्योदरमन्येषामन्नं रंकैविभुज्यते ॥१६३॥
वहां अत्यन्त दुःसह महाभयंकर दुर्भिक्ष हुआ। गरीब लोग अन्य लोगों के पेट को फाड़कर अन्न खाने लगे।
ततः सोढमशक्तस्तैः स्वकीयोदरपूर्तये ।
सच्चारित्रं परित्यज्य स्नोकृता कुत्सिता क्रिया ॥१६४॥ अपनी उदरपूर्ति में असमर्थ हुए। उन्होंने सदाचार कर बुरी क्रियायें स्वीकार कर ली।
गृहीत्वा चीवरं दण्डं भिक्षापात्रं च कंवलम् ।
मिक्षाशन समानीय स्वावासे भुज्यते सदाः ॥१९५॥
वे चीवर, दण्ड, भिक्षापात्र और कंवल लेकर भिक्षा में प्राप्त भोजन का लाकर अपने आवास में खाने लगे।
कियत्काले गते प्येवं जाता सुभिक्षता ततः।
भणितं संघमाहूय शान्तिना गणधारिणा ॥१६६॥ इस प्रकार कुछ समय बीत जाने पर सुभिक्ष हो गया । गणधारी शान्ति ने संघ को बुलाकर कहा । १ मंतं ख। २ स्वावासं ।