________________
जो संसारी जीव हैं, वे शुभ और अशुभ परिणामों से कर्म के परिपाक वश चारों गतियों में निरन्तर भ्रमण करते रहते हैं।
शुभभावा श्रयात्पुण्यं पापं त्वशुभ मावतः ।
ज्ञात्वैवं सुमते ! तद्धि यच्छेयस्तं समाश्रय ॥५॥
शुभ भावों का आश्चर्य लेने से पुण्य और अशुभ भावों का आश्रय लेने से पाप होता है, इस बात को जानकर हे बुद्धिमान् ! तुम जो कल्याणकारी है, उसका आश्रय लो।
भावास्ते पंचधा प्रोक्ताः शुभाशुभगति प्रदाः ।
संसारवर्तिजीवानां जिनेन्द्र ध्वस्तिकल्मषैः ॥६॥
पापों का नाश करने वाले जिनेन्द्र भगवान ने संसार में स्थित जीवों के शुभ और अशुभ गतियों को प्रदान करने वाले पाँच भाव कहे हैं।
प्राधो हयौपशमो भावः क्षायिको मिश्रसंज्ञकः ।
भावो ऽस्त्यौदयिक श्चतुर्थः पंचमः पारिणामिकः ॥७॥ प्रथम औपशमिक, द्वितीय क्षायिक, तृतीय मिश्र, चतुर्थ औदयिक तथा पंचम पारिणामिक भाव है ।
स्यात्कर्मोपशो पूर्वः क्षायिकः कर्मणांक्षये ।
क्षायोपशमिको भावः क्षयोपशम संभवः ॥८॥ कर्मों के उपशम होने पर प्रौपशमिक भाव, क्षय होने पर क्षायिक भाव तथा क्षयोपशम होने पर क्षायोपशमिक भाव होता है।
कर्मोदयाद्भवो भावो जीवस्यौदयिकस्तु यः। स्वभावः परिणामः स्यात्तद्भवः पारिणामिकः ॥६॥