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अन्तरङ्ग में राग आदि उपाधिरहित, निज शुद्ध अनुभव से उत्पन्न सुखामत के अनुभव लक्षण रुप और बाहरी विषयों में सम्पूर्ण रुप से हिंसा, असत्य, चोरी, अब्रह्म और परिग्रह के त्याग रुप पांच महाव्रतों का पालन करता है, तब बुरे स्वप्न आदि प्रकट तथा अप्रकट प्रमाद सहित होता हुआ छठे गुणस्थानवर्ती प्रमत्त संयत
होता है।
७-अप्रमत्त संयत वही जल रेखा के तुल्य संज्वलन कषाय का मन्द उदय होने पर प्रमाद रहित जो शुद्ध आत्मा का अनुभव है, उसमें मद उत्पन्न करने वाले व्यक्त, अव्यक्त प्रमादों से रहित होकर सप्तम गुणस्थानवर्ती 'अप्रमत्त संयत" होता है।
८-अपूर्व फरण-प्रतीव संज्वलन कषाय का मन्द उदय होने पर अपूर्व परम आह लाद एक सुख के अनुभव रुप अपूर्वकरण में उपशमक या क्षपक नामक अष्टम गुणस्थानवर्ती होता है।
६-अनिवृत्तिकरण-देखे, सुने और अनुभव किए हुए भोगों की वांछादि रुप सम्पूर्ण संकल्प तथा विकल्प रहित अपने निश्चल परमात्म रुप के एकाग्र ध्यान - के परिणाम से जिन जीवों के एक समय में परस्पर अन्तर नहीं होता। वे वर्ण तथा संस्थान के भेद होने पर भी अनिवृत्तिकरण उपशमक क्षपक संज्ञा के धारक, अप्रत्याख्यानावरण द्वितीय कषाय आदि इक्कीस प्रकार की चारित्र मोहनीय कर्म की प्रकृतियों के उपशमन और क्षपण में समर्थ नवम गुणस्थानवर्ती जीव हैं।
१०-सूक्ष्म साम्पराय- सूक्ष्म परमात्मतत्त्व भावना के बल से जो सूक्ष्मकृष्टि रुप लोभ कषाय के उपशमक और क्षपक हैं वे दशम गुणस्थानवर्ती हैं।
११-उपशान्त कषाय- परम उपशम मूर्ति निज आत्मा के स्वभाव अनुभव के बल से सम्पूर्ण मोह का उपशम करने वाले ग्यारहवें उपशान्त कषाय गुणस्थानवर्ती होते हैं।
१२-क्षीण कषाय-उपशम श्रेणी से भिन्न क्षपक श्रेणी के मार्ग से कषाय रहित शुद्ध आत्मा की भावना के बल से जिनके समस्त कषाय नष्ट हो गए हैं, वे बारहवें गुणस्थानवर्ती होते हैं ।