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2 सासादन गुणस्थान-आदि उपशम सम्यक्त्व रत्न रूपी पर्वत से च्युत हुआ अनन्तानुबन्धी क्रोध, मान, माया, लोभ में से किसी एक का उदय होने पर जब तक एक समय से छः अवाली काल तक जीव मिथ्यात्व रूपी भूतल पर नहीं जाता है, तब तक सासादन गुणस्थान होता है (भाव सं. २९७-२९८)
3 मित्र गुणस्थान-दर्शनमोहनीय की तीन प्रकृतियाँ है-मिथ्यात्व, सम्यग्मिथ्यात्व और सम्यक् प्रकृति । इनमें से सम्यग्मिथ्यात्व प्रकृति के उदय से मिश्र गुणस्थान होता है। इसमें क्षायोपशमिक भाव होते हैं तथा वे परिणाम सम्यक्त्व और मिथ्यात्व इन दोनों से सम्मिलित रूप होते हैं (देवसेन: भाव सं. १९८)। इस गुणस्थान में रहने वाले जीव के भाव न तो सम्यक्त्व रूप होते हैं और न मिथ्यात्व रूप होते हैं, किन्तु इन दोनों से मिले हुए इन दोनों मे भिन्न तीसरे ही प्रकार के होते
4 अविरत सम्यग्दृष्टि-जो स्वाभाविक अनन्त ज्ञान आदि अनन्त गुण का आधारभूत निज परमात्म द्रव्य उपादेय है तथा इन्द्रिय सुख आदि परद्रव्य त्याज्य हैं, इस तरह सर्वज्ञ देव प्रणीत निश्चय व व्यवहार नय को साध्य-साधक भाव से मानता है, परन्तु भूमि की रेखा के समान क्रोध आदि अप्रत्याख्यानकषाय के उदय से मारने के लिए कोतवाल से पकड़े हुए चोर की भाँति आत्मनिन्दादि सहित होकर इन्द्रिय सुख का अनुभव करता है, यह ‘अविरत सम्यग्दृष्टि' चौथे गुणस्थानवर्ती का लक्षण है। (वृहद् द्रव्य सं गाथा-१३)
५-देशविरत-पूर्वोक्त प्रकार से सम्यग्दृष्टि होकर भूमिरेखादि के समान क्रोधादि अप्रत्याख्यानावरण द्वितीय कषायों के उदय का अभाव होने पर अन्तरंग में निश्चय नय से एकदेश राग आदि से रहित स्वाभाविक सुख के अनुभव लक्षण तथा बाह य विषयों में हिंसा, झूठ, चोरी, अब्रह्म और परिग्रह इनके एकदेश त्याग रूप पांच अणुव्रतों में और दर्शन, व्रत, सामायिक. प्रोषध, सचित्तविरत, रात्रिभुक्तित्याग, ब्रह्मचर्य, आरम्भ त्याग, परिग्रह त्याग, अनुमति त्याग और उद्दिष्ट त्याग रूप श्रावक के एकादश स्थानों में से किसी एक में बर्तने वाला है, वह पंचम गुणस्थानवर्ती श्रावक होता है।
६-प्रमत्त संयत-जब वही सम्यग्दृष्टि धूलि की रेखा के समान क्रोध प्रादि प्रत्याख्यानावरण तीसरी कषाय के उदय का अभाव होने पर निश्चय नप से