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मस्करीपूरण का कहना है कि प्रज्ञान से मोक्ष होता है । उसका यह कहना मिथ्यात्व है; क्योंकि उस ज्ञानहीन के यह बन्धु है, पिता है, माता है, वहिन है प्रिया है. इस प्रकार प्रर्थकक्रया कठिनाई से घटित हो सकती है ।
अज्ञान मिथ्यात्व का निराकरण करने के बाद पण्डित वामदेव ने श्वेताम्बर मत की उत्पत्ति बतलाते हुए उसकी समीक्षा की है । समीक्षा के प्रमुख विपय स्त्रीमुक्ति तथा केवलमुक्ति है । श्वेताम्बर कहते हैं कि स्त्रियों को मोक्ष होता हैं, क्योंकि मोक्ष के अविकल कारण उनमें भी होते हैं, जैसे पुरुष के होते हैं । दिगम्बरों के अनुसार मोक्ष के कारणभूत जो ज्ञानादि गुण हैं, उनका परम प्रकर्ष स्त्रियों में नहीं होता है; क्योंकि वह परम प्रकर्ष है, जैसे सप्तम पृथ्वी में जाने के कारणभूत पाप का परम प्रकर्ष स्त्रियों में नहीं पाया जाता है । स्त्रियों का संयम मोक्ष का हेतु नहीं है, क्योंकि स्त्रियों में नियम से ऋद्धि विशेष के अहेतुत्व की अन्यथानुपपत्ति है, अर्थात् ऋद्धि के कारणभूत संयम भी स्त्रियों के नहीं है तो मोक्ष का कारणभूत संयम कैसे हो सकता है ? स्त्रियों के वस्त्र संयम है, अतः मोक्ष का हेतु नहीं है, जैसे गृहस्थ का संयम नहीं है । वस्त्र ग्रहण करने पर उसको सीना, धोना, सुखाना, रखना, उठाना तथा चोर ले जाने पर मन में क्षोभ होना इत्यादि असंयम की बातें हो जाने से संयम किस प्रकार पल सकता है ? स्त्रीवेद एक अशुभकर्म है; क्योंकि स्त्रीवेद को लेकर सम्यग्दृष्टि उत्पन्न नहीं होता है ।
श्वेताम्बर जैन अरहंत अवस्था में भगवान के भोजन ग्रहण होना मानते हैं । उनका कहना है कि बिना भोजन के कुछ कम पूर्व कोटि वर्ष तक उत्कृष्ट रूप से केवली का शरीर टिक नहीं सकता। उनका यह कथन सिद्ध नहीं होता है | भगवान केवलज्ञानी के परम श्रदारिक शरीर है, हम जैसे का सामान्य श्रदारिक नहीं । उक्त शरीर के लिए प्रतिक्षण दिव्य, सूक्ष्म, महानपुष्टिकारक नोकर्माहार रूप परमाणु आया करते हैं, इन्हीं से उनका शरीर अवस्थित रहता है । केवली के राग द्वेष का सर्वथा अभाव होता है, अत: वह भोजन नहीं करते, भोजन तो इच्छापूर्वक किया जाता है तथा जब उनके अनन्तवीर्य का सद्भाव है तो भोजन से प्रयोजन भी क्या रहता है ? मोहनीय कर्म का क्षय होने पर क्षुधा, पिपासा आदि समर्थ नहीं होती हैं । अतः द्रव्य कर्मों के आश्रय से उनका अस्तित्व उपचार से है ।
उपर्युक्त विवेचन से निष्कर्ष निकलता है कि मिथ्यात्व अनेक रूपों में विद्य मान है, जिसका जैन ग्रन्थों में निराकरण किया गया है ।