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१३ - सयोग केवली - मोह के नाश होने के पश्चात् अन्तर्मुहूर्त काल में ही निज शुद्ध प्रात्मानुभव रूप एकत्व वितर्क प्रविचार नामक द्वितीय शुक्लध्यान में स्थिर होकर उसके अन्तिम समय में ज्ञानावरण, दर्शनावरण तथा अन्तराय इन तीनों को एक साथ एक काल में सर्वथा निर्मूल करके मेघपटल से निकले हुए सूर्य के समान सम्पूर्ण निर्मल केवल ज्ञान किरणों से लोक प्रलोक के प्रकाशक तेरहवें गुणस्थानवर्ती 'जिनभास्कर' होते हैं ।
काय वर्गणा के अवलम्बन से कर्मों के परिस्पन्द रुप योग है, उससे रहित
१४- प्रयोग केवली - मन, वचन, ग्रहण करने में कारण जो आत्मा के प्रदेशों का चौदहवें गुणस्थानवर्ती "प्रयोगी जिन" होते हैं ।
( वृहद् द्रव्य संग्रह ब्रह्मदेव टीका - गाथा - १३)
भाव संग्रह के कर्ता
भाव संग्रह संज्ञक दो कृतियां प्राप्त होती हैं । इनमें से पहली के रचयिता आचार्य देवसेन थे । ये विमल सेन गणी के शिष्य थे। इन्होंने धारानगरी में निवास करते हुए भगवान पार्श्वनाथ के मन्दिर में माघ सुदी दशमी विक्रम संवत् ९९० में दर्शनसार ग्रन्थ की रचना की । इनकी अन्य कृतियाँ हैं - १. आराधनासार २. तत्वसार तथा ३. नयचक्र आदि ।
आचार्य वामदेव ने द्वितीय भावसंग्रह की रचना की । प्रथम भाव संग्रह प्राकृत गाथामय है तो द्वितीय भाव संग्रह संस्कृत पद्य में है । वामदेव अपनी रचना के लिए भाव, भाषा, विषयानुक्रम, प्रतिपाद्य विषय आदि सभी दृष्टि से आचार्य देवसेन के ऋणी हैं । अनेक स्थानों पर यह प्राकृत भाव संग्रह का संस्कृत अनुवाद प्रतीत होता है, यद्यपि वामदेव ने स्थान-स्थान पर परिवर्तन और परिवर्द्धन भी किया है । उक्त च कहकर गीता आदि के उदाहरण प्रस्तुत किए हैं ।
इन्होंने नेमिचन्द्र सिद्धान्त चक्रवर्ती के त्रिलोकसार को देखकर त्रैलोक्य दीपक ग्रन्थ की रचना की । ग्रन्थ रचना पुखाड वंश के कामदेव की प्रेरणा से हुई । भाव संग्रह के अतिरिक्त इनकी निम्नलिखित रचनायें और प्राप्त होती हैं --- १. प्रतिष्ठा सूक्ति संग्रह २. तत्वार्थसार ३. त्रैलोक्यदीपक ४. श्रुतज्ञानोद्यापन ५. त्रिलोकसार पूजा और ६. मन्दिर संस्कार पूजा आदि ।