________________
१५७
पुवेदश्च ततः क्रोधो मानो माया विनिश्चयति । चतुष्वशिषु शेषेषु यथाक्रमेण निश्चितम् ॥७१३॥ कर्माण्येतानि षट्त्रिंशत्क्षयं नीत्वा तदन्तिमे । समये स्थूललोभस्य सूक्ष्मत्वं प्राप्येन्मुनिः ॥७१४॥
आदि अंश में स्थावर सहित नरक गति, तिर्यञ्चगति, नरक गत्यानुपूर्वी, तिर्यग्गत्यानुपूर्वी, साधारण, उद्योत, सूक्ष्मत्व, विकलेन्द्रिय, एकेन्द्रियत्व, तप, स्त्यानगृद्धि आदि तीन । इस प्रकार सोलह, दूसरे तथा तीसरे में मध्य की आठ कषायें, चौथे में नपु ंसकत्व, पांचवें में स्त्रीत्व, छह नोकषायें, शेष चार अंशों में पुं वेद, क्रोध, मान, माया यथाक्रम नष्ट होती हैं, यह निश्चित है । इन ३६ कर्मों का क्षय कर उसके अन्त समय में मुनि स्थूल लोभ को सूक्ष्म कर देता है ।
इति नवमं क्षपका निवृत्ति गुणस्थानम् ।
श्रारोहति ततः सूक्ष्मसांप रायगुणास्पदम् । सूक्ष्मलोभं निगृह्णाति तत्रासावाद्यशुक्लतः ॥७१५॥
अनन्तर सूक्ष्म सांपराय गुणस्थान पर आरोहण करता है । वहाँ पर वह आदि शुक्लध्यान से सूक्ष्मलोभ को पकड़ता है ।
इति दशमं क्षपकसूक्ष्म कषायगुणस्थानम् । भूत्वाथ क्षीणमोहात्मा वीतरागो महाद्य ुति । पूर्ववद्भावसंयुक्तो द्वितीयं ध्यानमाश्रयेत् ॥७१६॥