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१५० दर्शन मोह के प्रशम होने से उपशम सम्यक्त्व होता है । दर्शन का घात करने वाले कर्म के क्षय से किन्हीं के क्षायिक कहा गया है।
तत्राघशुक्लसद्धयानं स ध्यायत्युपशामकः ।
पूर्वज्ञः शुद्धिमान युक्तो ह्याद्यः संहननैस्त्रिभिः ॥६७६॥ वह उपशामक आदि के शुक्लध्यान (पृथक्त्ववितर्क) को ध्याता है । आदि के तीन संहनन का धारी वह पूर्वो का ज्ञाता और शुद्धियुत्त, होता है।
तद्धयानयोगतो योगी पर द्धि प्रगच्छति ।
प्रापयन्नुपशान्ताप्तिं वृत्तमोहं महारिपुम् ॥६८०॥ चारित्रमोह रूपी महाशत्रु की उपशान्ति पाकर उस ध्यान के योग से योगी उत्कृष्ट शुद्धि को प्राप्त होता है। - वृत्तमोहोवयं प्राप्य पुनः प्रच्यवते यतिः ।
अधः कृतमलं तोयं पुनर्लानं भवेद्यथा ॥६८१॥
चारित्रमोह के उदय को पाकर यति पुन: च्युत होता है । जिस प्रकार जिसका मल नीचे कर दिया है, ऐसा जल पुनः मलिन हो जाता है।
ऊर्ध्वमेकं च्युतौ वाम सप्तमं यान्ति देहिनः ।
इति त्रयमपूर्वाद्यास्त्रयो यान्त्युपशामकाः ॥६८२॥ ऊपर एक के च्युत होने पर प्राणी उसके विपरीत सातवें को जाते हैं। इस प्रकार अपूर्वादि तीनों उपशामक होते हैं।
१ ग: ख. ।
२
गा: ख.।