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उपशान्तकषायस्य न ह्यस्त्यूर्ध्व गुणाश्रयः ।
ततोऽसौ वामतां याति सप्तमं वा गुणास्पदम् ॥ ६८३ ॥
उपशान्त कषाय के ऊर्ध्वगुण का प्राश्रय नहीं है । अतः यह विपरीत हो जाता है अथवा सप्तम गुणस्थान को चला जाता है ।
उपशान्तगुणां येषां मृत्युः प्रजायते ।
अहमिन्द्रा भवन्त्येते सर्वार्थ सिद्धिसद्मनि ॥ ६८४ ॥
उपशान्त गुण श्रेणी में जिनकी मृत्यु हो जाती है, वे सर्वार्थसिद्धि में ग्रहभिन्द्र होते हैं ।
चतुवर शमश्रेण रोहत्त्याश्रयते यमम् । द्वात्रिंशद्वारमाक्षीण कर्माशा यान्ति निर्वृतिम् ॥ ६८५ ॥
चार बार उपशम श्रेणी पर आरोहण करते है, यम का आश्रय लेते है । बत्तीस बार में कर्मों के अंश को पूरी तरह क्षीणकर मोक्ष चले जाते है ।
श्रा' संसारं चतुर्वारमेव स्याच्छमनोवला । जीवस्यैकभवे वारद्वयं सा यदि जायते ॥ ६८६ ॥
जीव के एक भव में यदि उपशम श्रेणी दो बार हो जाती है तो जब तक संसार है, तब तक उपशम श्रेणी चार बार होती है ।
उक्तं चान्यत्र ग्रन्थान्तरे - दूसरे ग्रन्थ में कहा है
१ श्लोकोऽयं नाखि ख - पुस्तके |