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इस प्रकार इस गुणस्थान में छह आवश्यक नहीं होते हैं, क्योंकि निरन्तर सद्ध्यान के योग से स्वभाविकी बुद्धि होती है।
अप्रमत्तं गुणस्थानं संक्षेपेणेह वणितम् ।
अतो वक्ष्येऽष्टमं स्थानं श्रेणिद्वयसमाश्रितम् ॥६७०॥ यहां पर अप्रमत्त गुणस्थान का संक्षेप में वर्णन किया। अनन्तर अष्टम गुणस्थान का कथन करूंगा जो कि दो श्रेणियों के आश्रित होता है।
इति सप्तमप्रमत्त गुणस्थानम् । प्रतोऽपूर्वदिनामानि गुणस्थानान्युदीरयेत् ।
भवत्युपशम श्रेणी येभ्यश्च क्षपकावलिः ॥६७१॥ अब यहां से अपूर्वादि गुणस्थानों का कथन किया जाता है, जिनसे उपशम और क्षपक श्रेणी होती है ।
तत्रापूर्वगुणस्थानमपूर्वगुणसम्भवात्।
भावानामनिवृत्तित्वादनिवृत्तिगुणास्पदम् ॥६७२॥ अपूर्व गुण की उत्पत्ति के कारण अपूर्व गुणस्थान होता है । भावों की निवृत्ति न होने से अनिवृत्ति गुणस्थान होता है ।
अस्तित्वात्सूक्ष्मलोभस्य भवेत्सूक्ष्मकषायकम्।
प्रशान्तरागयुक्तत्वादुषशान्तकषायकम् ॥६७३॥ सूक्ष्म लोक के अस्तित्व से सूक्ष्म कषाय से सूक्ष्म कषाय हो जाती है। प्रशान्त राग से युक्त होने से उपशान्त कषाय होता है।