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इन्द्रियाणि विलीयन्ते मनो यत्र लयं व्रजेत् ।
ध्यातृध्येयविकल्पे न तद्ध्यानं रूपवर्जितम् ॥६६५॥ जहाँ पर इन्द्रियां विलीन होती हैं, जहां पर मन विलय हो जाता है जहाँ पर ध्याता और ध्येय का विकल्प नहीं होता है, वह ध्यान रूपरहित (रूपातीत) होता है ।
अमूर्तमजमव्यक्त निर्विकल्पं चिदात्मकम् ।
स्मरेद्यत्रात्मनात्मानं रूपातीतं च तद्विदुः ॥६६६॥
जो अमूर्त है, अजन्मा है, प्रत्यक्त है, निर्विकल्प है और चिदात्मा है, जहाँ आत्मा के द्वारा आत्मा का स्मरण किया जाता है, उस ध्यान को रूपातीत कहते हैं ।
रूपातीतमिदं ध्यानं ध्यानन योगी समाहितः।
चराचरमिदं विश्वं क्षोमयत्यखिलं क्षणात् ॥६६७॥ रूपातीत इस ध्यान को ध्याता हुआ समाहित चित्त योगी क्षणभर में चराचर इस समस्त विश्व को क्षुब्ध कर देता है।
सिद्धयोऽप्यणिमाद्याश्च सिध्यन्ति स्वयमेव हि ।
मुक्तिस्त्रीवश्यतां याति योगिनस्तस्य निश्चितम् ॥६६॥
अणिमादि सिद्धियां स्वयं सिद्ध हो जाती है और उस योगी को निश्चित रूप से मुक्ति रूपी लक्ष्मी पशवर्ती हो जाती है।
इत्येतस्मिन् गुणस्थाने नो सन्त्यावश्यकानि षट् । संततध्यान सद्योगाद बुद्धिः स्वाभाविकी यतः ॥६६६॥