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ध्यायन्ति गौणभावाढ्यं धय॑मालम्बनान्वितम् ।
मुख्यं धयं निरालम्बमप्रमत्तमुनीश्वराः ॥६३७॥
जो गौणभाव से सालम्बन धर्म्य ध्यान करते हैं तथा मुख्य रूप से निरालम्बन धर्म्यध्यान करते हैं, वे अप्रमत्त मुनिश्वर हैं।
धर्मध्यानं तु सालम्बं चतुर्भेदैनिगद्यते।
आज्ञापायविपाकास्य संस्थानविचयात्मभिः ॥६३८।। सालम्बन धर्मध्यान चार प्रकार का कहा जाता है-प्राज्ञाविचय, अपायविचय, विपाकविचय और संस्थान विचय। .
स्वसिद्धान्तोक्तमार्गेण तत्त्वानां चिन्तनं यथा।
प्राज्ञया जिननाथस्य तदाज्ञाविचयंमतम् ॥६३६॥ जिननाथ की आज्ञा के अनुसार अपने सिद्धान्त में कहे हुए मार्ग से तत्त्वों का चिन्तन करना प्राज्ञाविचय.धर्म्यध्यान माना गया है।
अपायश्चिन्त्ये बाढं यः शुभाशुभकर्मणाम् ।
अपायविच प्रोक्तं तव्यानं ध्यानवेदिभिः ॥६४०॥
शुभाशुभकर्मों को दूर करना जिसमें भली भाँति विचारा जाता है। उसे ध्यान को जानने वालों ने अपार्यावचय कहा है।
संसारवर्तिजीवानां विपाकः कर्षणामपम ।
दुर्लक्ष श्चिन्त्यते यत्र विपाकविच यं हि तत् ॥६४१॥ . संसार में रहने वाले जीवों का यह कर्म विपाक दुर्लक्ष है, इस बात को जहाँ विचारा जाता है, वह विपाकविचय है।