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१४२ विचित्रं लोकसंस्थानं पदार्थनिचितं महत् ।
चिन्त्यते यत्र तध्यानं संस्थानं विचयं स्मृतम् ॥६४२॥ विचित्र लोक का संस्थान (आकार) बड़े-बड़े पदार्थों से व्याप्त है, यह बात जहां विचारी जाती है, वह ध्यान संस्थानविचय माना गया है।
अथवा जिनमूल्याना पंचनां परमेष्ठीनाम् ।
पृथक पृथक् तु यध्यानं सालम्बंतदपि स्मृतम् ॥६४३॥ अथवा जिनेन्द्र भगवान जिनमें मुख्य हैं, ऐसे पंचपरमेष्ठियों का पृथक्-पृथक् जो ध्यान है, वह भी सालम्बन ध्यान माना गया है।
सालम्बध्यानमित्येवं ज्ञात्वा ध्यायन्ति योगिनः।।
कर्मनिर्जरणं तेषां प्रभवत्यविलम्बितम् ॥६४४॥ इस प्रकार सालम्बन ध्यान को जानकर जो योगी ध्यान लगाते हैं वे शीघ्र ही कर्मों की निर्जरा करने में समर्थ होते हैं ।
अस्तित्वान्नोकषायाणामार्तव्यानं प्रजायते। निराकरोतितध्यानं स्वाध्यायभावमाबलात् ॥६४५॥ नोकषायों के अस्तित्वं से आर्तध्यान उत्पन्न होता है । वह सालम्बन ध्यान उस आर्तध्यान का स्वाध्याय की भावना के बल से निराकरण करता है ।
यावत्प्रमादसंयुक्तस्तावत्तस्य न तिष्ठति ।
धर्मध्यानं निरालम्बमित्यूचुजिनभास्कराः ॥६४६॥ जब तक प्रमाद से युक्त है, तब तक ध्यान करने वाले के निरालम्बन धर्मध्यान नहीं ठहरता है, ऐसा जिन सूर्यों ने कहा है।