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हास्यादि षट्सु दोषेषु प्रसक्ता जिनलिंगिनः । मूढास्ते पुष्पना राचेविभिद्यन्ते यथेप्सितम् ॥ ६२८॥
हास्यादि छः दोषों में लगे हुए मूढ़ जिनलिङ्गी कामदेव के बाणों से यथेष्ट रूप में भेदे जाते हैं ।
धृत्वा जैनेश्वरं लिङ्ग वैपरीत्येन वर्तमम् । मिथ्यात्वं तद्भवेत्तेषां दुर्गतौ गमने सखा ॥ ६२६॥
जिनेश्वर लिंग को धारण कर विपरीत आचरण करना मिथ्यात्व होता है । जो कि मुनियों की दुर्गति गमन में मित्र होता है ।
घूर्ण्यन्ते विषयव्याभिद्यन्ते मारमार्गणैः । वेदरागवशीभूता दह्यन्ते दुःखर्वाह्नना ॥ ६३०॥
स्त्रीवेदादि राग के वशीभूत हुए विषय रूपी सर्प से घुमाए जाते हैं । कामदेव के बाणों से भेदे जाते हैं तथा दुःख रूपी अग्नि से जलाए जाते हैं ।
न शक्नुवन्तिये जेतुं कषायराक्षसांगणम् । वराकाः कार्मणंसैन्यं न ते जेर्ष्यान्त जातुचित् ॥ ६३१ ॥
जो कषाय रूपी राक्षसों के समूह को जीतने के लिए समर्थ नहीं है, वे बेचारे कभी भी कर्मों की सेना को नहीं जीतेंगे ।
रसे रसायने स्तम्भे शाकिनीग्रहनिग्रहे ।
वश्योच्चाटन विद्वेषे भोगीन्द्रविषविष्णवे ॥ ६३२ ॥