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निद्रा स्नेहो हृषीकाणि कषाया विकथाः क्रमात् ।
एकैकं पंच चत्वारश्चतस्त्रश्च प्रमादकाः ॥६२३॥ निद्रा, स्नेह, पंच इन्द्रियाँ, चार कषायें, चार विकथायें । इस प्रकार पन्द्रह प्रमाद होते हैं ।
बाह्य देशविधग्रंन्यैश्चेतनात्मकः ।
तथैवाभ्यन्तरोद्भुतेश्चतुर्दशविधच्युताः ॥६२४॥ प्रमत्त संयत, चेतनाचेतनात्मक दश प्रकार के बहिरङ्ग और १४ प्रकार के अन्तरङ्ग परिग्रहों से रहित होते हैं ।
क्षेत्रं गृहं धनं धान्यं सूवर्ण रजतं तथा।
दास्यो दाशाश्च भांडं च कुप्पं बाह्यपरिग्रहाः ॥६२५॥
क्षेत्र, गृह, धन, धान्य, सुवर्ण, रजत, दासी, दास, भांड तथा कुप्य ये बाह य परिग्रह हैं ।
ग्रन्था हास्यादयो दोषा वामं वेदाः कषायकाः।
षडे कत्रिचतुर्भदरन्तरङ्गाश्चुर्दश ॥६२६॥
हास्य, रति, अरति, शोक, भय, जुगुप्सा ये छह तथा मिथ्यात्व, स्त्रीवेद, पुवेद और नपुंसक वेद ये तीन वेद क्रोध, मान, माया, लोभ ये चार कषायें इस प्रकार १४ अन्तरङ्ग परिग्रह होते हैं।
त्यक्तग्रन्थेषु बाह्यषु पुनर्मु ह्यन्तिदुधियः।
समानास्ते भवन्त्युच्चैरुद्गीर्णाहारभोजिनाम् ॥६२७॥
जो दुबुद्धि बाह य परिग्रहों का त्याग कर पुनः उनमें मोहित होते हैं । वे उगले हुए आहार का भोजन करने वालों के समान होते हैं।