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ईग्विधं पदं भव्यः सर्व पुण्यादवाप्यते ।
तस्मात्पुण्यं प्रकर्तव्यं यत्नतो मोक्षकांक्षिणा ॥६१८॥ भव्य इस प्रकार के समस्त पद को पुण्य से प्राप्त करता है, अतः मोक्ष को चाहने वाले को यत्नपूर्वक पुण्य करना चाहिए ।
एवं संक्षेपतः प्रोक्तं यथोक्तं पूर्वसूरिभिः।
देशसंयमसम्बन्धिगुणस्थानं हि पंचमम् ॥६१६॥
इस प्रकार पूर्वाचार्यों के कहे अनुसार संक्षेप रूप से देशसंयम सम्बन्धी पंचम गणस्थान का कथन किया ।
इति पंचमं विरताविरतसंज्ञं गुणस्थानम् । अतो वक्ष्ये गुणस्थानं प्रमत्तसंयताह वयम् ।
तत्रोपशमिकाद्याः स्युस्त्रयो भावा यथोदिताः॥६२०॥ अनन्तर प्रमत्त संयत नामक गुणास्थान को कहूँगा। उसमें पहले कहे गए औपशमिकादि तीन भाव होते हैं।
कषायाणां चतुर्थानां तीव्रपाके महाव्रती।
भवेत्प्रमादयुक्तत्वात्प्रमत्तसंयताभिधः ॥६२१॥ चार कषायों के तीव्र पाक से महाव्रती जब प्रमाद से युक्त होता है तो प्रमत्त संयत नाम वाला होता है।
मूलशीलगुणैर्युक्तो थदप्यखिलसंयमी।
व्यक्ताव्यक्तप्रमादत्वाच्चित्रिताचरणो भवेत् ॥६२२॥ मूल गुण और शील गुणों से युक्त सर्वदेश संयमी व्यक्त और अव्यक्त प्रमाद के कारण चित्रित आचरण वाला होता है।