________________
तत्रानुभूय सत्सौख्यं सर्वाक्षार्थप्रसाधकम ।
ततश्च्युत्वा मभूमको नरेन्द्रत्वं प्रपद्यते ॥६१३॥ वहाँ पर समस्त इन्द्रियों के विषयों का प्रसाधक उत्तम सुख अनुभव कर वहाँ से च्युत होकर कर्मभूमि में राजत्व को प्राप्त करता है।
लक्षाश्चतुरशीतिः स्युरष्टादश च कोटयः। लक्षं चतुः सहस्त्रोनं गजथ्रचन्तः पुराणि च ॥६१४॥ निधयोनव रत्नानि प्रभवन्ति चतुर्दश ।
षट्खण्डभरते शत्वं चक्रिणां स्युर्विभूतयः ॥६१५॥ चौरासी लाख हाथी, अठारह करोड़ घोड़े, छयानबे हजार रानियां, नव निधियां, चौदह रत्न तथा छह खण्डों का स्वामित्व । ये भरतादि चक्रवतियों को विभूतियाँ होती हैं ।
जरत्तृणमिवाशेषां संत्यज्य राज्यसम्पदम् ।
अत्युत्कृष्टतपोलक्ष्मी मेवं प्राप्नोति शुद्धहक् ॥६१६॥ शुद्ध सम्यग्दृष्टि पुराने तृण के समान समस्त राज्य सम्पदा का परित्याग कर इस प्रकार प्रत्युत्कृष्ट तपोलक्ष्मी को प्राप्त करते हैं।
भस्मसात्कुरुते तस्माद्धातिकर्मेन्धनोत्करम् ।
संप्राप्यार्हन्त्यसल्लक्ष्मी मोक्षलक्ष्मीपतिर्भवेत् ॥६१७॥ उससे घातिकर्मों के ईन्धन के समह को भस्म करते हैं और प्रार्हन्त्य लक्ष्मी को पाकर मोक्ष लक्ष्मी के पति होते हैं। १ तत् ख। २ दां. क.। ३ लक्ष्म्या एवं ख. ।