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मन, वचन, काय से प्राणियों की रक्षा करना तथा इन्द्रियों के विस्तार को रोककर गृहस्थों का एक एकदेश संयम कहलाता है।
संयमम् । उपवासः सकृद्भुक्तिः सौवीराहारसेवन । इत्येवमाद्यमुद्दिष्टं साधुभिगृहिणां तपः ॥६०१॥ उपवास करना, एक बार भोजन करना, काँजी के आहार का सेवन करना इत्यादि को साधुप्रों ने गृहस्थों का तप कहा है।
तपः । कर्माण्यावश्यकान्याहुः षडेवं गृहचारिणाम् ।
अधः कर्मादिसम्पातदोषविच्छित्तिहेतवे ॥६०२॥ अधः कर्मादि से उत्पन्न दोषों को नष्ट करने के लिए इस प्रकार छह गृहस्थों के आवश्यक कर्म कहे गए हैं।
षट् कर्मभिः किमस्माकं पुण्यसाधनकारणः।
पुण्यातप्रजायते बन्धो बंधात्संसारता यतः ॥६०३॥ पुण्यसाधन के कारण होने से षट् कर्मों से हमारा क्या लाभ है ? क्योंकि पुण्य से बन्ध होता है । बन्ध से संसारिता होती है।
निजात्मानं निरालम्ब'ध्यानयोगेन चिन्त्यते।
येनेह बन्धविच्छेदं कृत्वा मुक्ति प्रगम्यते ॥६०४॥ १ आधाकम दिसंजात। २ निरालम्ब क. ।