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एषणा शुद्धिपूर्वक मन, वचन और काय से जो दान पात्र को प्रदान किया जाता है, वह आहारदान है । आहारदान सब दानों में उत्तम हैं।
माहारदानमेकं हि दीयते येन देहिना। सर्वाणि तेन दानानि भवन्ति विहितानि वै ॥५६३॥
जो शरीरधारी एक आहारदान देता हैं, उसने सभी दान दिए।
नास्ति क्षुधासमो व्याधिर्भेषजं वास्य शान्तये।
अन्नमेवेति मन्तव्यं तस्मात्तदेव भेषजम ॥५६४॥ क्षुधा के ससान कोई व्याधि नहीं है अथवा इसकी शान्ति के लिए अन्न को ही औषधि मानना चाहिए । अतः अन्न ही औषधि हैं।
विनाहारर्बलं नास्ति जायते नो बलं विना।
सच्छास्त्राध्ययनं तस्मात्तद्दानं स्यात्तदात्कम् ॥५६॥
आहार के बिना बल नहीं होता है । बल के बिना अच्छे शास्त्रों का अध्ययन नहीं होता है। अतः आहार का दान शास्त्रदानस्वरूप है।
अभयं प्राणसंरक्षा बुभुक्षा प्राणहारिणी।
क्षुन्निवारणमन्नं स्यादन्नमेवाभयं ततः ॥५६६॥ प्राणों की रक्षा अभय है, भूख प्राणों का हरण करने वाली है । अन्न क्षुधा का निवारण करता है, अतः अन्नदान हो अभयदान है।
१ तस्य. ख.।