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प्राष्टाह्निको अकृत्रिमेषु चैत्येषु कल्याणेषु च पंचसु । सुविनिर्मिता पूजा भवेत्सेन्द्रध्वजात्मिका ॥५५६॥
अकृत्रिम चैत्यालयों में तथा पंचकल्याणकों में देवों द्वारा की गई पूजा इन्द्रध्वजात्मिका है।
इन्द्रध्वजा महोत्सवमिति प्रोत्या प्रपंचयति पंचधा।
स स्यान्मुक्तिवधूनेत्र प्रेमपात्रं पुमानिह ॥५६०॥
इस प्रकार पाँच प्रकार से प्रीतिपूर्वक जो महोत्सवों का विस्तार करता है, वह पुरुष मुक्ति रूपी स्त्री का प्रेमपात्र होता है।
पूजा दानमाहारभैषज्यशास्त्राभयविकल्पतः ।
चतुर्धा तत्पृथक् त्रेधा त्रिधा पात्रसमाश्रयात् ॥५६१॥
आहारदान, औषधिदान, शास्त्रदान और अभयदान के भेद से चार प्रकार दान होता है। वह उत्तम, मध्यम और जधन्य पात्रों के प्राश्रय से तोन प्रकार का होता है।
एषणाशुद्धितो दानं त्रिया पात्रे प्रदीयते ।
भवत्याहारदानं तत्सर्वदानेषु चोत्तमम् ॥५६२।। १ सुरेन्द्र निर्मिता ख.।