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अन्न' स्याहारदानस्य तप्तिमा जां शरीरिणाम ।
रत्नभूस्वर्णदानानि कलां नाहन्ति षोडशीम् ॥५६७॥
अन्न रूप आहारदान से शरीरधारियों को जो तृप्ति होती है, उसके सामने रत्न, आभूषण और स्वर्णदान सोलहवीं कला के भी योग्य नहीं हैं।
सदृष्टिः पात्रदानेन लभते नाकिनां पदम् ।
ततोनरेन्द्रतां प्राप्य लभते पदमक्षयम् ॥५६८।। सम्यग्दृष्टि पुरुष पात्रदान के फलस्वरूप देवपद प्राप्त करता है । अनन्तर राजा होकर अक्षय पद प्राप्त करता है ।
संसाराब्धौ महाभीमे दुःखकल्लोलसंकुले।
तारकं पात्रमुत्कृष्टमनायासेन देहिनाम् ॥५६६॥
दुःख की तरंगों से व्याप्त महाभयङ्कर संसार रूपी समुद्र में प्राणियों को उत्कृष्ट पात्र प्रनायास ही तारने वाले होते हैं।
सत्पात्रं तारयत्युच्चैः स्वदातारं भवार्णवे।
यान पात्रं समीचीनं तारयत्यम्बुधौ यथा ॥५७०॥ सत्पात्र अपने दाता को संसार रूपो समुद्र से तार देता है, जिस प्रकार समाचोन जहाज समुद्र को पार करा देता है ।
भद्रमिथ्यादशो जीपा उत्कृष्टपात्रदानतः ।
उत्पद्य भुजते भोगानुत्कृष्ट भोगभूतले ॥५७१॥ उत्कृष्ट पात्रदान से भद्रमिथ्यादृष्टि जीव उत्तम भोगभूमि में उत्पन्न होकर भोगों को भोगते हैं । १ प्रत्यान्नाहारदातस्य. ख.। २ भाज ख.। ३ दानादि कला नाहति ।