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११५ बुरे पात्र और विशेष रूप से अपात्त को छोड़कर पात्रदान की विधि यथाक्रम कही जाती हैं ।
स्थापनमासनं योग्यं चरणक्षालनार्चने।
नतिस्त्रियोगशुद्धिच नवम्याहारशुद्धिता ॥५१६॥
१. योग्य स्थान पर ठहरना । २. प्रासन देना। ३. चरण प्रक्षालन करना। ४. अर्चना करना । ५. नमस्कार करना, (६ से ८) मन, वचन, काय की शुद्धि और ६. अाहार शुद्धि ।
नवविधं विधिः प्रोक्तः पात्रदाने मुनीश्वरैः ।
तथा षोडशभिर्दोषेरुद्गमाद्य विजितः ॥५२०॥ मुनिश्वरों के पात्रदान में यह नव प्रकार की विधि कही गई है तथा यह सोलह प्रकार के उद्गम आदि दोषों से रहित होती है।
उद्दिष्टं विक्रयानीतमुद्धारस्वीकृतं तथा। परिवर्त्य समानीतं देशान्तरात्समागतम् ॥५२१॥ अप्रासुकेन सम्मिश्रं भक्ति भाजनमिश्रता। अधिकापाक संवृद्धिमुनिवृन्दे समागतेः ॥२२॥ समीपीकरणं पंक्तौ संयतासंयतात्मनाम् । पाकभाजनतोऽन्यत्र निक्षिप्यानयनं तथा ॥५२३॥ निर्वापितं समुत्क्षिप्य दुग्धमण्डादिकं च यत् । नीचजात्यापितार्थ च प्रतिहस्तात्समर्पितम् ॥५२४॥ यक्षादिबलिशेषं च प्रानीय चोर्ध्वसद्मनि । ग्रन्थिमुद्भिद्य यद्दत्तं कालातिकमतोऽपितम् ॥५२५॥