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राजादीनां भयाद्दत्तमित्येषा दोष संहतिः । वर्जनीया प्रयत्नेन पुण्य साधन सिद्धये ॥५२६ ॥
उद्दिष्ट, विक्रय के लिए गयी हुई वस्तु को लाना, उद्धार, स्वीकृत, परिवर्त्य, समानीत, दूसरे देश से आया हुआ, अप्रासुक से मिश्रित, भुक्तिभाजनमिश्रता मुनिजनों के आने पर अधिक पकाकर बढ़ा लेना, पंक्ति में संयतासंयतों को पास में करना, पाक पात्र से अन्यत्र रखकर लाना, गिरे हुए दूध, माँड़ आदि को उठाकर देना, नीच जाति द्वारा दिया हुआ हुआ पदार्थ, उल्टे हाथ से देना, यक्षादि की बलि विशेष, ऊंचे महल से लाकर देना, गाँठ खोलकर देना, काल का अतिक्रमण कर देना, राजादि के भय से देना । इन सब दोषों के समूह को पुण्य के साधन की सिद्धि के लिए प्रयत्नपूर्वक छोड़ देना चाहिए ।
श्राहारं भक्तितो दत्तं दात्रा योग्यं यथाविधि । स्वीकर्त्तव्यं विशोध्येतद्वीतरागयतोशिना ॥५२७॥
दाता के द्वारा भक्तिपूर्वक यथायोग्य विधि से दिए गए आहार को वीतराग मुनिराज को शोधकर स्वीकार करना चाहिए ।
योग्य कालागतं पात्रं मध्यमं वा जघन्य कम् । यथावत्प्रतिपत्या च दानं तस्ने प्रदीयताम् ॥ ५२८ ॥
योग्य काल में आए हुए उत्तम, मध्यम अथवा जधन्य पात्र को यथावत् संकल्प पूर्वक दान देना चाहिए ।
यदि पात्र मलब्धं चेदेवं निन्दां करोत्यसौ ।
वासरोऽयं वृथा यातः पात्रदानं बिना मम ॥ ५२६ ॥