SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 111
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ १०२ धनधान्यादिवस्तूनां संख्यानं मुह्यतां विना। तदणुव्रतमित्याहुः पंचतं गृहमेधिनाम् ॥४५६॥ मोह के बिना धन-धान्यादि वस्तुओं का परिमाण रखना गृहस्थों का पाँचवां अणुव्रत कहा गया है। शोलव्रतानि तस्येह गुणव्रतत्रयं यथा । शिक्षावतं चतुष्कं च स तैतानि विदुर्बुधाः ॥४५७॥ उस गृहस्थ के तीन गुणव्रत और चार शिक्षाव्रत ये सात शीलव्रत विद्वानों ने कहे हैं। दिग्देशानर्थदण्डानां विरति क्रियते तथा'। दिग्वतत्रयमित्याहुमुनयो व्रतधारिणः ॥४५८॥ दिग्व्रत, देशव्रत तथा अनर्थदण्डवत । इन तीनों को व्रतधारी मुनियों ने दिग्व्रतत्रय कहा है। कृत्वा संख्यान माशायां ततो बहिर्न गम्यते । यावज्जीवं भवत्येतदिग्वतमादिमं व्रतम् ॥४५६॥ दिशाओं का परिमाण कर जीवनपर्यन्त जो उसके बाहर नहीं जाता है, उसके आदि दिग्वत नामक व्रत होता है। कृत्वा कालावधि शक्त्या क्रियत्प्रदेशवर्जनम् । तद्देशविरति म व्रतं द्वितीयकं विदुः ॥४६०॥ शक्तिपूर्वक काल की सीमा नियत करके किन्हीं प्रदेशों के परित्याग करने को द्वितीय देशविरतिव्रत कहते हैं। १ यथा. ख.।
SR No.090105
Book TitleBhav Sangrah
Original Sutra AuthorVamdev Acharya
AuthorRamechandra Bijnaur
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year
Total Pages198
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Principle
File Size10 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy