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रत्नत्रयोपयुक्तस्य जनस्य कस्यचित्क्वचित् । गोपनं प्राप्तदोषस्य तद्द्भवत्युपगूहनम् ॥४१४॥
रत्नत्रय से युक्त किसी व्यक्ति का क्वचित् दोष प्राप्त हो तो उसका ढांकना उपगूहन अंङ्ग है ।
दर्शना' ज्ञानतो वृत्ताच्चलतां गृहमेधिनाम् । यतीनां स्थापनं तद्वत्स्थितीकरणमुच्यते ॥ ४१५॥
दर्शन, ज्ञान और चारित्र से डगमग होते हुए गृहस्थों अथवा यतियों का सच्चे मार्ग में स्थापन करना स्थितिकरण कहलाता है ।
रोगादितश्रमार्तानां साधूनां गृहिणामपि ।
यथायोग्योपचारस्तद्वात्सत्यं धर्मकाम्यया ॥ ४१६ ॥
रोग से पीड़ित श्रम से पीड़ित साधुत्रों और गृहस्थों का धर्म की कामना से यथायोग्य उपचार करना ( सेवा करना ) वात्सल्य कहलाता है ।
मिथ्यात मस्त्वपाकृत्य सद्धर्मोद्योतनं परम् । क्रियते शक्तितो बाढं सैषा प्रभावना मता ॥४१७॥
मिथ्यात्व रूपी अन्धकार को दूर हटाकर उत्कृष्ट रूप से सद्धर्म का अपनी शक्ति के अनुसार उद्योतन करना प्रभावना मानी गई हैं ।
एवमष्टांगसंयुक्तं सम्यक्त्वं स्याद्भवापहम् । साधकः सर्वकार्येषु मंत्र: पूर्णाक्षरो यथा ॥ ४१८ ॥
१ दुष्टेषु ख ।