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समीचीनमिदं रूपं कुदेवस्येति जल्पनम् । इत्यादिभावना भव्यस्त्याज्यानायतनात्मिका ॥ ४०६ ॥
कुदेव का यह रूप ठीक है, इस प्रकार कहना, इत्यादि अनायतन रूप भावना भव्यों को छोड़ देनी चाहिए ।
इदमेवेशं तत्वं जिनोवतं तन्न चान्यथा । इत्य' कंपr रुचिर्यासो निःशंकाङ्गः तदुच्यते ॥ ४१० ॥
तत्त्व यही है, ऐसा ही है । जिनेन्द्र भगवान् ने जो कहा है, वह अन्यथा नहीं है, इस प्रकार जो प्रकम्प रुचि होती है, उसे निःशंकित अंग कहते हैं ।
संसारेन्द्रियभोगेषु सर्वेषु भंगुरात्मसु ।
निरीह भावना यत्र सा निष्कांक्षा स्मृता बुधैः ॥४११॥
क्षणभंगुर, संसार और समस्त इन्द्रिय भोगों के प्रति जहां निरीहभावना है, उसे विद्वानों ने निःकांक्षित अंग माना है ।
स्वभावमलिने देहे रत्नत्रयपवित्रिते । जुगुप्सारहितो भावो सा स्यान्निविचिकित्सिता ॥ ४९२ ॥
जो देह स्वभाव से मलिन किन्तु रत्नत्रय से पवित्र है, उसके प्रति घृणा का भाव न रखना निर्विचिकित्सा अंङ्ग है ।
दोषदृष्टेषु शास्त्रेषु तपस्विदेवतादिषु ।
चित्तं न मुह्यते कापि तदमूढत्वं निगद्यते ॥४१३॥
जिनमें दोष दिखाई दें, ऐसे शास्त्रों में तपस्वी और देवताओं आदि में किसी प्रकार चित्त मोहित नहीं होता है, वह अमूढत्व अंग कहा गया है ।
१ इत्यशंका. ख । २ निःशंकत्वं । ३ दुष्टेषु. ख. ।