________________
इस प्रकार आठ अङ्गों से संयुक्त सम्यक्त्व भव को नष्ट करने वाला होता है, जिस प्रकार पूर्ण अक्षरों वाला मन्त्र समस्त कार्यों का साधक होता है।
दृग्मोहक्षयसंभूतौ यच्छद्धानमनुत्तरं ।
भवेत्तत्क्षायिकं नित्यं कर्मसंघातघातकम् ॥४१६॥ दर्शन मोह के क्षय हो जाने पर जो अनुत्तर श्रद्धान है, वह क्षायिक होता है। वह नित्य रूप से कर्मों के समूह का घातक होता है।
नानावाग्भिवहूपायर्भीष्मरूपैश्च दुर्धरैः।
त्रिदशायर्न चाल्येत तत्सम्यक्त्वं कदाचन ॥४२०॥ वह सम्यक्त्व नाना प्रकार की वाणी, अनेक उपाय तथा भयंकर रूप को धारण करने वाले दुर्धर देवादि के द्वारा चालित नहीं होता है।
क्षायिकीडनियारम्भी केवलिकमसन्निधौ।
कर्म माजो नरस्तत्र कश्चिनिष्ठापको भवेत् ॥४२१॥ केवली के चरण सान्निध्य में सम्यग्दर्शन की क्षायिकी क्रिया का प्रारम्भ करने वाला, कर्म को नष्ट करने वाला कोई व्यक्ति निष्ठापक होता है।
लब्धमृत्युनरः कश्चिद्बद्घायुष्कः प्रगच्छति ।
यस्यां गतौ हि तत्रैव पूर्णतां कुरुते ध्र वम् ॥४२२॥ १ कर्मक्षमायो इति पृथग्वि भक्त्यन्त पदं ख-पुस्तके । २ अस्य स्थाने क्वचिदिति संभाव्यते ।