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________________ ७९ भरतेश वैभव अथ सरवसंधि मैं आत्मा हूँ । ज्ञान मेरा स्वभाव है । वही मेरा शरीर है। इस प्रकार चिन्तन करते हुए अपने ज्ञाननेत्रके द्वारा भरतजी परमात्माका दर्शन कर रहे हैं । सबसे पहिले भरतेश आत्मा भिन्न है, शरीर भिन्न है इस प्रकारके मन्त्रका अनुभव करने लगे, तदनन्तर यह विचार तो दूर हो गया और अब वे केवल आत्मामें ही निमग्न होने लगे । उनके हृदय में अब कोई संकल्प नहीं, विकल्प नहीं, और न बाहर विचार ही है अब तो वे आनन्दरसमें मग्न हो रहे हैं । कर्मोकी निर्जरा बराबर हो रही है, आत्मप्रकाश बढ़ता जा रहा है, ज्ञान व सुखकी वृद्धि हो रही है । अब भरतेश अपने राज्यको भूल गये हैं। स्त्रियोंका उन्होंने त्याग किया है। अब उन्हें शरीर की भी स्मृति नहीं रही है। वे राज्याधिपति उस समय सिद्धोंके समान निर्मल आत्मसाम्राज्यमें निमग्न थे । उस समय तनिक भी हिलडुल नहीं रहे थे । प्रेक्षकोंको ऐसा प्रतीत होता था कि कहीं कोई सोनेकी पुतलीको लाकर उस सिहासन पर कीलित नहीं किया है ? कोई पूछे कि सम्राट् कहाँ हैं, तो उत्तर मिलेगा कि महल में हैं ! महलमें किस जगह हैं ? अन्तःपुरके दरबार में हैं । वहाँ भी किस जगह हैं, क्या कर रहे हैं ? सिंहासनपर बैठे हैं। सिंहासनपर भी बैठे हुए अपने शरीरके अन्दर हैं । परन्तु यह सब असत्य कथन है । उस समय भरते न महलमें, न सिंहासनपर और न देहमें ही । उस समय तो वे अपनी आत्मामें विराजमान थे । उस समय भरतेश्वरको ऐसा अनुभव हो रहा था कि आकाश स्वयं पुरुषाकार होकर ज्ञान व प्रकाशके रूपमें हो उस शरीरमें आ गया है । इस प्रकार वे परमात्माका अनुभव कर रहे थे । इस प्रकार बााकी सर्व बातोंको भूलकर अपने आपमें अत्यधिक लीन होते हुए भरतेशने आत्मानन्दका पूर्ण स्वाद लिया । इतने में जोरसे शंखध्वनि हो उठी। उसका शब्द भरतेशके कानतक भी आया। उसी समय सम्राट्ने बहुत भक्तिके साथ परमात्माकी अष्टद्रव्योंसे भावपूजा की व नेत्र खोले । इतनेमें दासियोंने आकर प्रार्थना की, स्वामिन्! मुनिभुक्तिका समय हो गया है। आप पधारें ।
SR No.090101
Book TitleBharatesh Vaibhav
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatnakar Varni
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year
Total Pages730
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Story
File Size16 MB
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