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भरतेश वैभव
चक्रवर्ती जिनशरण, निरंजन, सिद्ध शब्दको उच्चारण करते हुए वहाँसे उठे । उस सुवर्णमय महलसे नीचे उतरकर सबसे पहिले उन्होंने मुनियोंका प्रतिग्रहण किया । तदनन्तर उन सत्पात्रोंको भावभक्तिसे दान देकर आदरके साथ विदा किया ।
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भरतेश्वर महल में बैठे हुए हैं। इतनेमें कुसुमाजी रानीकी छोटी बहिन मकरंदाजी आई । मकरंदाजी बड़ी सुन्दरी है। अभी छोटी है । फिर भी चतुर है । अपनी सखियोंके साथ चक्रवर्तीके पास आई और सुगन्ध अक्षताको देकर कहने लगी कि भावाजी ! भोजनकी सब तैयारी हो गई। हमारे महल में पधारिये ।
भरतेश हँसकर बोलते कुमारी ! आज मैं तुम्हारे गृहमें भोजनके लिये नहीं आ सकता । डेढ़ वर्ष के बाद आकर यदि मुझे बुलाया तो मैं आऊँगा। अभी तुम जाओ ।
भावाजी ! अपनी बहिन के घरमें मैंने बुलाया, सो आप हँसीका बात कर रहे हैं, क्या यह उचित है ?
कुमारी ! तुमने बह्निका भवनका नाम कब लिया ? तुमने तो यही कहा था कि हमारे घरमें भोजनके लिए चलिये, यदि मैं उससे ऐसा समझा तो अनुचित क्या है ?
अच्छा रहने दीजिये आपका यह विनोद | अब बहुत समय हो चुका है। आप भोजनके लिये चलिये । बहिन कुसुमांजी आपकी प्रतीक्षा कर रही हैं ।
अच्छी बात ! चलो ! ऐसा कहकर सम्राट् कुसुमाजीके घर के लिए रवाना हुए। उस समय ठीक वैसा ही मालूम हो रहा था जैसे कुसुमको चूसनेके लिये भ्रमर जा रहा हो। सम्राट् पधार रहे हैं यह समाचार पहिले से ही सेविकाओंने कुसुमाजीको सुनाया । उसी समय कुसुमाजी अपनी सखियोंके साथ भरतेश्वरका स्वागत करनेको आई ।
अनंतर कुसुमाजीने भरतेशके पास में जाकर उनकी रत्नोंसे आरती उतारी और बहुत भक्तिके साथ उनके चरणोंमें अपने मस्तकको रखा । अपने हाथके सहारे उसे उठाते हुए भरतेश्वरने कहा कि कुसुमी ! रहने दो। इस प्रकारकी भक्तिकी क्या आवश्यकता है ?
फिर सात-आठ हाथ आगे बढ़नेपर उसने अपने हाथोंसे भरतेश्वरके चरणोंको धोया व बहुत भक्तिके साथ अपने वस्त्रसे उनके पादको पोंछ दिया । अब भरतेश्वर कुसुमाजीके महलमें प्रवेश कर गये ।