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भरलेश वैभव कभी वह आत्मज्योति पुरुषाकार दिखती है तो कभी केवल प्रकाशक रूपमें दिख रही है। कभी बीच में चंचलता आ जाती है। अतः सहसा अंधकार हो जाता है और वह प्रकाश मलिन हो जाता है।
इस प्रकार कभी अन्धकार और कभी प्रकाश और कभी मलिन प्रकाशरूप आत्मस्वरूप भरतको प्रत्यक्ष हो रहा है।
जब अपूर्व आत्मज्योतिका दर्शन होता था, तब आनंदसे भरतेश्वरको रोमांच हो जाता था। भीतर सुखकी भी वद्धि होती थी। भरतेश्वर आनंद व आश्चर्य में मग्न होते थे।
भीतर आत्माका प्रकाश स्पष्ट दिख रहा है। उसी प्रकाशमें उन्हें यह भी दिखता है कि वालके समान कर्मरेणु भी सरक-सरक कर हट रहे हैं । साथ ही आत्मानंद नदीके बाढ़के समान बढ़ता ही जा रहा है ।
इस प्रकार भरतेशक चिन्तकी दशा हो रही है। इस बातको सब लोग मानने को तैयार न होंगे, क्योंकि यह आत्मतत्वका अनुभव स्वसंवेदनज्ञानके गोचर हैं। भव्योंको ही उमका अनुभव हो सकता है, अभव्योंको नहीं। यह जैनशास्त्रका कथन है ! जैनसिद्धान्तका यह सिद्ध रहस्य है। अभव्योंके चित्तको यह विषय परम विरुद्ध मालम होता है। - इस प्रकार भरतेश अपने आत्मयोगामृतमें डुबकी लगाते हुए अपने मनके लोभादिक दोषोंको धो रहे हैं जैसे-जैसे दोष धुलते जाते हैं वे अधिक सुखी हो रहे हैं।
उन्हें सुत्रसमुद्र में डुबकी लगाने दीजिएगा। हम लोग संसारमें गोता खा रहे हैं । भरतजी संसारमें रहते हुए भी आत्मगुखमें मग्न हैं। कैसी विचित्रता है यह ?
पाठकोंको आश्चर्य होगा कि इस प्रकारका सामर्थ्य भरतेश्वरमें क्यों आया ? उन्होंने इसके लिये कौनसे साधनका अवलंचन लिया था ? जिससे उन्हें इंद्रियोंके साथ-साथ अतींद्रियसुखका भी अनुभव हो रहा था । पाठकोंको स्मरण रहे कि भरतेश परमात्मासे प्रार्थना करते थे "हे आत्मन् ! लोकको देखने के लिये तुझे इन जड़ नेत्रोंकी आवश्यकता नहीं है । तुम्हारे सारे शरीरमें ( ज्ञानरूपी ) नेत्र हैं। पदार्थोके विचार करनेके लिए तुझे मनकी आवश्यकता नहीं । तुम्हारे सारे शरीरमें ( ज्ञानरूपी ) मन है । आत्मांगमें सर्वत्र विचारशक्ति है, अनंत सुख व वीर्य है। इसलिए तुम अपने प्रकाशके साथ मेरे हृदयमें सदा निवास करते रहो" | इसी भावनाका यह संस्कार है।
इति उपहार संषि