SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 87
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ भरतेश वैभव दोनों रानियाँ घबराईं। इधर-उधरसे बचने का प्रयत्न किया। भरतने भी अपने मनकी बात पूर्ण होनेके बाद उनको छोड़ दिया। इतने में सबकी सब रानियों हँसने लगीं। भरतेश भी जरा हँसे । कुसुमाजी सबसे अधिक हँसी और कहने लगी अच्छा हुआ! ऐसा ही होना चाहिये । मैं जो कुछ भी अपनी महलमें गुप्त रूपसे बोली थी उसे तुम लोगोंने आकर यहाँपर पतिदेवको कह दिया। क्या तुम लोगोंको भी देखनेवाला कोई दैव नहीं है ? उसका फल प्रत्यक्ष रूपमे तुम लोगोंने देख लिया। लोकमें यह बात प्रसिद्ध है कि किसीके गुप्त विषयको कोई प्रकट कर दूसरोंके सामने हँसी करते हैं, उन लोगोंके सम्बन्धमें दैब स्वयं जागृत रहता है । उनको लोकमें किसी न किसी प्रकार यह हँसीका भाजन बना देता है । इस बातका अनुभव बहिनो ! तुम लोगोंने प्रलमा से किया अब कुसुमाजी बहुत लज्जित नहीं हो रही थी। पहिलेके समान अब खंबेके पीछे नहीं जा रही हैं । हाँ ! पतिके सामने कुछ लज्जासे युक्त होकर उन दोनों रानियोंके प्रति जोर-जोरसे कहने लगी कि मेरी हँसी उड़ाने के लिए तम लोगोंने प्रयत्न किया, परन्तु देवको बह अस्वीकार होनेसे तुम ही लोगोंकी हँसी हुई । अभीतक मुख नीचेकर बैठी हुई कुमुमाजीको हर्षपूर्वक बोलती हुई देखकर सम्राट् प्रसन्न हुए। ___ अमराजी व सुमनाजी कुछ आगे आईं और कुछ नीचे मुखकर कहने लगी स्वामिन् ! सब लोगोंके सामने इस प्रकारका व्यवहार करना क्या आपको उचित है ? आप ही विचार करें । भरतेश्वर बोले कि इनमें दूसरे कौन हैं ? ये सब रानियाँ मेरी ही तो हैं ? और सबकी सब तुम्हारी बहिनें हैं। पुरुषों में मैं अबोला ही हूँ। ऐमी अवस्थामें तुम लोगों को लज्जा क्यों होती है ? मुझे तुम लोगोंकी काव्यरचनासे हर्ष हुआ, तब मैंने आप लोगोंको आलिंगन दिया, इसमें क्या दोष है। स्त्रियोंको मैं आलिंगन दूं इसमें क्या अनुचित है ? स्वामिन् ! इस विषयपर हमारा कुछ भी नहीं कहना है । परंतु कुसुमाजीके सम्बन्धमें हम कुछ उपाय कहेंगे ऐसा कहकर आपने बालसे व झठे तंत्रसे क्यों हमें पासमें बुलाया? इसीका हमें दुःख है। इस सम्बन्धमें मेरा तंत्र झूठा क्यों हुआ? इस उपायसे क्या कुसुमाजी नहीं हँसी ? यही तो मैं भी चाहता था। इसीके लिए जो
SR No.090101
Book TitleBharatesh Vaibhav
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatnakar Varni
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year
Total Pages730
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Story
File Size16 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy