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________________ भरतेश वैभव ७१ कि हमारी रानियोंमें परस्परमें कोई भेदभाव नहीं है । एक दूसरे पर आई हुई आपत्तियों को वे सबकी सब अपने ही ऊपर आई हुई समझती हैं । उन लोगों का स्नेह ही इस प्रकार है । स्वामिन्! देवियोंको आपके चरणमें पड़े बहुत देरी हो चुकी है अब विशेष विनोदकी आवश्यकता नहीं है । उनको आप उठनेकी आज्ञा दीजियेगा । सम्राट् हँसकर बोले अच्छा ! आप लोग बहुत थक गई होंगी । अब उठकर खड़ी हो जाओ। इस बातको सुनकर सब रानियाँ उठकर खड़ी हो गई । भरतेश कहने लगे अच्छी बात ! यदि तुम लोगों को मेरे पहने हुए आभरण पसंद नहीं, तो और नवीन आभरण दूँगा । इसलिये आप लोगों को इतना संकोच क्यों है ? स्पष्ट क्यों नहीं कहती हैं । तब वे स्त्रियाँ स्पष्ट बोली आजके दिन आप कुछ भी कहें हम लेनेको तैयार नहीं हैं हमारा यह व्रत है। इस प्रकार दृढ़तापूर्वक बोलनेपर भरत बहुत विचारमें पड गये । अब क्या करना ? इन लोगों के निमित्तसे मुझे आनंद प्राप्त हुआ, उसके फल रूपमें मैं इनको कुछ देना चाहता हूँ । परन्तु ये लेने को तैयार नहीं हैं । इन लोगोंको कुछ न कुछ दिये बिना मेरा उमड़ता हुआ आनंद रुक नहीं सकता। अब इसके लिए क्या उपाय है ? ठीक है ये सोना सुवर्ण नहीं चाहती हैं तो नहीं सही, इनको एक बार आलिंगन तो दे देना चाहिये, परन्तु ये मेरे पासमें खाने में भी लज्जित होती है। ऐसी अवस्थामें क्या करना ? इस प्रकार विचार करते हुए उपायके साथ उनको पासमें बुलानेका तंत्र किया । अरी सुमना ! अमर ! तुम दोनों इधर आवो। तुम लोगोंके काव्यको सुनकर कुसुमाजीको चित्तविभ्रम हो रहा है। उसके मनकी बात बाहर पड़नेका उसको परम दुःख हैं । इसलिये उसके मनको शांत करनेका जो उपाय है उसे तुम लोगोंके कानमें गुप्त रूपसे मैं कहना चाहता हूँ, इसलिये मेरे पास आवो ! ऐसा कहकर उनको पासमें बुला लिया। दोनों रानियाँ हँसती-हँसती पासमें आईं। आनेके बाद दोनोंको अपने दाहिनी व बांयी तरफ खड़ी कर पहिले उन दोनोंके कानमें कुछ कहने के समान उनके कानकी ओर मुख ले जाकर बादमें दोनोंको जोरसे आलिंगन दिया । उस समय ऐसा मालूम हो रहा था कि कल्पवृक्षकी दोनों ओरसे दो कल्पलतायें ही हों या कामदेव विनोद विहारमें दोनों ओरसे पांचालिकाओंको आलिंगन जिस प्रकार देता हो वैसा ही मालूम हो रहा था ।
SR No.090101
Book TitleBharatesh Vaibhav
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatnakar Varni
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year
Total Pages730
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Story
File Size16 MB
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