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भरतेश वैभव
सम्राट्ने कहा - यदि पहिलेके आभरण हैं तो क्या हुआ ? अभी मैं इस प्रसन्नताके प्रसंग में अपने आभरणोंमेंसे तुमको देना चाहता हूँ । आओ ! लेओ ! यह कहकर अपने पास बुलाने लगे ।
हा ! हमलोग कितनी बार मना करती हैं, किन्तु फिर भी पतिदेव नहीं मानते। हम क्या करें। ऐसा कहकर सभी रानियोंको इशारा करती हुई, उनके साथ आई तथा भरतके चरण में साप्टांग नमस्कार करने लगी, उत्त संजय ठीक ऐसा दृष्टिगोचर हुअर, जैसा कि एक बड़ी आँधी द्वारा किसी वृक्षसे कोई लता के गिरनेपर होता हो । यह क्या हुआ ? मैंने तो पुरस्कार प्रदान निमित्त इन दोनोंको बुलाया था, परन्तु मे सबकी सब आकर क्यों साष्टांग नमस्कार कर रही हैं ? इस प्रकार विचार करते हुए वे पण्डिता मुखकी ओर देखने लगे । पण्डिता सम्राट्के मनकी बात को समझकर बोलने लगी ।
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'स्वामिन्! आपने इन रानियोंसे जो अपने पहिने हुए आभरणोंको देनेकी बात कही, वह उन लोगोंको पसन्द नहीं आई । उत्तम सतियों का यह लक्षण है कि वह कभी भी अपने पति के अलंकारको बिगाड़कर अपना शृङ्गार करना नहीं चाहेंगी। वे अच्छी तरह जानती हैं कि तुम्हारा जो श्रृङ्गार है, वहीं उन लोगोंके नेत्रोंका शृंगार है । ऐसी स्थितिमें आपके आभरणोंको निकलवाकर वे अपना शृङ्गार नहीं करना चाहती हैं । उनके हृदयमें सच्ची पतिभक्ति है ।
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इसलिये ऐसा करनेकी इच्छा न होनेसे सबकी सब आकर आपके चरणोंमें नमस्कार कर रही हैं। इतना ही उन लोगोंका अभिप्राय है अन्य नहीं । उन लोगोंने कई प्रकार से निषेधरूप अपना अभिप्राय प्रकट किया, फिर भी आपने नहीं माना, आग्रह ही किया। ऐसी अवस्थामें कोई उत्तर देना हमारा धर्म नहीं है, ऐसा समझकर वे मौनसे आकर आपको साष्टांग प्रणाम कर रही हैं ।
तत्र सम्राट् कहने लगे कि 'अच्छा हमने तो दोनों रानियोंको आभ रण देनेके लिये बुलाया था, वे सबकी सब आकर क्यों नमस्कार कर रही हैं ? इसका भी तो कुछ कारण होना चाहिये ।
स्वामिन्! क्या आप इस बातको नहीं जानते हैं और हँसी करते हैं। मालूम होते हुए भी नहींके समान प्रकट करते हैं । उसे छिपा रहे हैं। मैं जानती हूँ कि आप बहुत चतुर हैं। इस बात को जानते हुए भी. अजान बनकर आप मुझसे पूछ रहे हैं। क्या आप यह नहीं जानते हैं ।