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________________ भरतेश वैभव ६५ बहिन ! तुम्हारे रोम-रोम में भरतेशका प्रेम भरा हुआ है, इसलिए तुम्हारा हृदय उसके लिए समर्पित है। यह सच है कि नहीं, यह तुमसे पूछना नहीं चाहती। तुम्हारे वचन ही इस बातको स्पष्ट कह रहे हैं। अपने पतिके कृत्यके प्रति सन्तुष्ट होनेवाली शीलवती स्त्रियोंका लोकमें कौन वर्णन नहीं करेंगे। बहिन ! मैं तुम्हारी शपथपूर्वक कहता हूँ कि मुझे सज्जन सतियोंके चरित्र में बड़ा आनन्द आता है । उसको सुनकर मेरा हृदय भर जाता है । इस प्रकार वह अमृतवाचक तोता कुसुमाजीको दांपत्य-जीवनके रहस्य कहने लगा | कुसुमाजी बैठी बैठी उस तोतेके रहस्यपूर्ण वचन व वाक्चातुर्यको सुन रही थी। अपने मनमें ही विचार करने लगी कि इसने जो भी बात कही वह नवीन व रहस्यपूर्ण है । इससे मालूम होता है कि यह तोता नहीं है। पक्षियोंको जितना सिखावें उतना ही बोल सकते हैं, परन्तु यह तो मुझे ही सिखाने लग गया है और दांपत्य कलाको सिखा रहा है । यह तोता कभी नहीं हैं। या तो कोई व्यंतर इस शरीरपर प्रविष्ट होकर बोल रहा है या कोई देव है । तोतेका चातुर्य यह नहीं हो सकता । इसके शब्द पुरुषके समान नहीं हैं । स्त्रीके समान हैं । उसमें भी तरुणीके समान शब्द हैं। यह युवती कौन है ? अब इस बातका पता लगाना चाहिये। ऐसा विचार कर वह कहने लगी पक्षी ! तुम्हारे वचन सबके सब सत्य हैं। परंतु तुम्हारा वेष सत्य मालूम नहीं होता है। इसलिये तुम अपने छोटे वेषको छोड़कर बड़े वेषको धारण कर मेरे साथ बोलो । बहिन ! आपने मुझसे छोटे वेषको छोड़कर बड़े वेष धारण करनेके लिए कहा है, परन्तु यह मेरा वेष सत्य ही है। मेरा छोटा वेष तो बचपन में ही चला गया है ५ देखो ! मेरे साथ इस प्रकार चालाकी करना ठीक नहीं है। तुम मेरी प्रियसखी हो, इसलिए अपने निजरूपको दिखलावो, इस प्रकार कुसुमाजीने बलपूर्वक कहा इतने में उस तोते के नीचे अनेक रत्नाभरणोंसे भूषित एक तरुणी उठकर खड़ी हो गई । अपने छुपे हुए रूपको अपने बुद्धि चातुर्यसे जाननेवाली उस रानीके कौशलपर वह देवी हँसने लगी । सुन्दरी ! तुम कौन हो ? यहाँ क्यों आई ? बोलो। रानीने पूछा ।
SR No.090101
Book TitleBharatesh Vaibhav
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatnakar Varni
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year
Total Pages730
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Story
File Size16 MB
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