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________________ भरतेश वैभव देवी ! मैं एक व्यंतरकन्या हूँ, इधर-उधर पर्वत, जंगल वगैरह में रहती हैं । लीला विनोदसे आकाश मार्गसे जा रही थी। उस समय दिन ! तुम इसके साथ बोल रही थी। उन मनमोहक वचनोंसे आकृष्ट होकर मैं यहाँ सुननेके लिये आई हूँ। अलग खड़ी रहकर सुनती तो सम्भवतः तुम अपने मनकी बात मुझसे नहीं कहती, इसलिए इस पक्षी के शरीरमें प्रविष्ट होकर मैं तुमसे बोल रही थी । तुम मेरे रहस्य को समझ गई । बहुत अच्छा हुआ । सचमुवमें न frant भरतेशकी अर्धांगिनी हो । ६६ बहिन ! रूप, यौवन, संपत्ति व बुद्धिचातुर्य आदिको प्राप्त करना कठिन नहीं है। परंतु इस प्रकारकी पतिभक्तिको पाना अत्यंत कठिन है । पुराणपुरुष सम्राट्की अर्धांगिनी होकर तुमने ही उसे प्राप्त किया है । दूसरों को वह पतिभक्ति कहाँ से मिलेगी ? भरत जिनेन्द्र भगवान्का पुत्र है। तुम लोग जिनेन्द्र भगवान्की पुत्रवधू ! इसलिये तुम लोगोंका आचरण पुण्यमय है । यह सोभाग्य सबको कैसे प्राप्त हो सकता है । वे सम्राट् मेरे कोई नहीं हैं । वे लोकमें परनारीसहोदरके नामसे प्रसिद्ध हैं, इसलिए वे मेरा भी सहोदर भाई हैं । अब मैं उसे भाईके नामसे ही कहूँगी। देवी ! अभीतक तोते के शरीर में प्रविष्ट होकर मैं तुम्हें बनके नाम से सम्बोधन कर रही थी। परन्तु अब मैं तुम्हें बहिन न कहकर भाभी के नामसे कहूँगी । भाभी ! मेरे भाईके प्रति तुमने जो असली प्रेम रखा है उसे देखकर मेरे चित्तमें अत्यन्त हर्ष होता है। इसके उपलक्ष्यमें मैं तुम्हारी सेवामें क्या भेंट अर्पण करूँ समझ में नहीं आता। हमारे भाई नवनिधिके स्वामी हैं। उसने तुम्हारे लिये इच्छित रत्नमय आभरणोंको दे ही रखा है। ऐसी अवस्थामें मैं तुम्हारे लिये क्या हूँ ? यदि दूं तो भी 'तुम लेनेवाली नहीं । इस बातको में जानती हूँ । अब तुम्हारे लिए वस्त्रा'भूषणोंको देने की बात जाने दो। जिस समय तुम्हें मेरी आवश्यकता हो स्मरण कर लेना; मैं तुम्हारी सेवामें उपस्थित हो जाऊँगी । यह कहकर बहू व्यंतरकन्या अदृश्य हो गई । . कुसुमाजी आश्चर्यचकित हो इधर-उधर देखने लगी, परन्तु अब व्यन्तरकन्या वहाँ नहीं है । वह बीती हुई घटनाका विचार करती करती जरा हँसने लगी, व
SR No.090101
Book TitleBharatesh Vaibhav
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatnakar Varni
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year
Total Pages730
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Story
File Size16 MB
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