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भरतेस वैभव
ही भोजन करें तो हितकर हो सकता है, नहीं तो अनेक प्रकारके रोगोत्पत्तिकी संभावना है। कामसुस्त्र को भी इसी प्रकार भोगना चाहिये । अतिकामसे दुःख होगा। यही उत्तम भोगियोंका लक्षण हैं !
यौबनका मद जितना चढ़े उतना ही उसे भोगकर ठण्डा कर देना चाहिये । मदनकामेश्वरी आदि तंत्रोंसे उस कामेच्छाको बढ़ाना कभी भी ठीक नहीं है। बहिन ! तुम जानती हो कि भोजन किया हआ अन्न यदि उचित रूपसे पचकर शरीरके अवयवोंमें पहुँच जाय तो ठीक है। द्रावण, स्तंभन आदि प्रयोगकर उस आहारको पचानेका उद्योग करना सुख नहीं है, दुःख है। नवयौवन में उत्पन्न कामसुख स्वर्गीय गंगाजलके समान मीठा रहता है । धातुपौष्टिक अनेक औषधियोंसे उत्पन्न मदसे भोगा हुआ भोग यह लवण समुद्रके जलके समान है। ___ स्वाभाविक शक्तिसे भोग न क ो लोग औषधि नादि सपने भोगते हैं उनको अन्त में अनेक प्रकारके रोग उत्पन्न होते हैं । इन्द्रियों वगैरह नष्ट होती हैं। __ बहिन ! यदि किसीको भूख न हो और वह भोजन करे तो उसे जिस प्रकार निश्चयसे अजीर्ण रोग होगा, उसी प्रकार अपनी शक्ति व इच्छाको नहीं जानकर कामभोग करें, तो अनेक रोग अवश्य उत्पन्न होंगे । अपनी विवशताको देखकर जितनेमें वह मद उतर जाय वहाँतक भोगनेमें शोभा है । अत्युत्कट भोग भोगनेपर महान अहित होगा। उससे तृष्णा लगेगी, बुद्धि भ्रष्ट होगी, विशेष क्या ? ऐसा सुख स्वयंका शत्रु बन बैठता है।
स्त्रियोंके साथ हास्य-विलास, विनोद आदि करते हुए समय व्यतीत करना चाहिये । संसर्ग-सुख तो कुछ ही समयके लिये होना चाहिये । यदि पच गया तो वह सुख है, नहीं तो महा दुःख है ।
बहिन ! अपने अंतरंगको जानकर, इच्छाको देखकर व शक्तिको पहिचानकर जो कुशल पतिपत्नी भोग करते हैं उनकी जय होती है । उन्हें आनंद मिलता है।
इंद्रियोंके वश स्वयं न होकर उन मदोन्मत्त इंद्रियोंको बशमें करके भोग भोगने में बड़ी शोभा है । वह सरस कविता है। शृंगार है।।
रतिक्रीडासे थककर बनाई गई रचना कविता आदि वेश्याके शृंगारके समान है। सशक्त मस्तकसे उत्पन्न शब्दमाधुर्य, अर्थगांभीर्य आदि गुणोंसे युक्त रचना ब्राह्मणी के श्रृंगारके समान है।