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________________ भरसंश देव अथ शुकसल्लाप संधि सिद्धपरमात्मन् ! भन्योंके हृदयमें आप सन्तोष उत्पन्न करनेवाले हैं । तपोधन मुनिराज आपकी सेवा में सदा निरत रहते हैं। इसलिए हमें ही आपकी सेवाके योग्य सुवृद्धि दीजिये । बहिन कुसुमाजी ! सुनो, तुम्हारे सामने मैं कहने में समर्थ नो नहीं है, फिर भी तुमने आग्रह किया है। तुम्हारी आज्ञाका उल्लंघन करना मेरा धर्म नहीं है। इसलिये मेरे मनमें जो बात आई है, उसे मैं तुमसे कहूँगा । वह तोता कहने लगा। ___ बहिन ! तुम जितनी भी बात अपने पतिके बारेमें कह चुकी हो। पूर्ण सत्य हैं। इसमें तनिक भी असत्य नहीं है। तीन छत्राधिपति भगवान् आदिनाथके ज्येष्ठ पुत्रकी बराबरी करनेवाले इन दश दिशा ओंमें कौन हैं ? उनकी बराबरी करनेवाले राजा इम लोकमें कोई नहीं हैं और उनकी रानियोंको बराबरी करनेवाली स्त्रियाँ भी लोकमें नहीं हैं । इतना ही नहीं, तुम्हारे साथ बातचीत करते रहनेवाले मेरे समान भी कोई नहीं है, ऐसा यदि कहा जाय तो कोई अत्युक्ति नहीं होगी। जिसने इस षट्स्त्रण्डाधिपतिको जन्म दिया है, वह यशस्वतीदेवी भी जगन्माता हैं एवं तुम जो उसकी रानियाँ हुई हो, इसके लिए भी तुमने पूर्व में अतुलपुण्यका सम्पादन किया होगा। ___ उत्तम सतियोंके साथ उत्तम पुरुषोंका सम्बन्ध उत्तम सुवर्णके आभरणके बीच में उत्तम रत्नके जड़ाबके समान मालूम होता है। बहिन ! तरुणी व तरुणका सम्बन्ध सचमुचमें आम्रवृक्षपर लगी हुई मल्लिकाके समान है । सुन्दर भरतके साथ आप सदृश सुन्दरियोंका सम्बन्ध अशोक वृक्षके साथ लगी हुई जुहीको लताके समान मालूम होता है। यदि भरत चन्दनके समान . सुगंधयुक्त हैं तो आप लोग कपूरके समान है । चन्दन वृक्षपर लिपटी हुई सुगंधित लताके समान आपकी अवस्था है। भरत पुरुषरत्न हैं। आप लोग स्त्री रत्न हैं। इसलिये आप लोगोंकी जोड़ी रत्नोंको मिलाकर बनाये हुए रत्नहारके समान मालूम होती है। लोकमें अनेक प्रकारका अनमेलपना पाया जाता है । यदि पति धार्मिक हो तो पत्नी धार्मिक नहीं रहती है । पत्नी धार्मिक हो तो पति वैसा नहीं, पति बुद्धिमान हो तो पली मूर्खा, पत्नी
SR No.090101
Book TitleBharatesh Vaibhav
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatnakar Varni
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year
Total Pages730
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Story
File Size16 MB
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