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________________ भरतेश वैभव परन्तु ध्यान रहे, मैंने जो-जो बातें कहीं हैं, उनको अपने मनमें रखो। दूसरे किसीको नहीं कह्ना। तुमको अपना स्नेही समानकर मैंने तुमसे यह कहा है, अन्यथा मैं किसीसे कहनेवाली नहीं थी । ___ अमृतवाचक ! तुम अभीतक चुपचाप मन रहे हो, और कुछ भी उत्तर नहीं दे रहे हो । मैं जो कुछ भी कह रही हूँ वह सच है या झूठ, तुम्हारे मनको वह पटती है कि नहीं, बोलो तो सही। इस प्रकार वह आग्रहसे पूछने लगी। तब वह अमृतवाचक बोलने लगा। बहिन ! तुमने जो कुछ भी रहस्य कहा वह मेरे बिन में आता ही नहीं । आया भी तो मैं उसे नहीं कह सकता। पक्षियोंकी जातिमें जिसने जन्म लिया है उसमें बह चातुर्य कहाँसे आयेगा? लोक में मैं सबकी बोल व चालको देख सूनकर मीख सकता हूँ, परन्तु बहिन ! तुम्हारी तथा तुम्हारे पतिकी चाल बोल कुछ विचित्र ही है। वे किसी दुसरेको नहीं आ सकती हैं। इसलिए मैं चुपचापके सुनता जा रहा था। अब तुम बहत आग्रह कर रही हो, इसलिए जो कुछ मेरी समझमें आया उसे कहता हूँ । सुनो ! पाठकोंको आश्चर्य होगा कि भरतेश्वरने उस प्रकारके अंगलावण्य को या अलौकिक सौंदर्यको किस प्रकार प्राप्त किया ? उसके लिये कैसे उद्योग किया ? वह इस जन्मके उद्योगका फल नहीं है। उन्होंने पूर्व जन्मसे ही इसके लिए बड़ी तैयारी की थी। वे निरन्तर चिन्तवन करते थे, परमात्मन् ! तुम भयंकर संमाररूपी जंगलको जलानेके लिये अग्निके समान हो । उत्तम केवलजानको धारण करनेवाले हो, मंगलस्वरूप हो । तुम्हारा धैर्य मेरुके समान अचल है । इसलिये संमारका नाश करने के लिये अन्तरंग में आपका निवास रहे। मुझे ऐसी सामर्थ्य प्रदान करो। सद्भावनाका यह फल है कि उन्होंने लोकाकर्षक सौंदर्य को प्राप्त किया। इति राजलावण्य संधि
SR No.090101
Book TitleBharatesh Vaibhav
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatnakar Varni
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year
Total Pages730
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Story
File Size16 MB
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