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________________ · : 7 भरतेश वैभव २७१ दीक्षा ली । ज्ञानकल्याणकी पूजा कर देवेन्द्र स्वर्गलोकको चला गया । परन्तु प्रतिनित्य अनेक भव्यगण, तपोधन आनन्दसे वहाँपर आते थे एवं केवलियों का दर्शन लेते थे। श्री कुन्तलावती व कुसुमाजी साध्वीको बहुत ही हर्ष हो रहा। अभी उनके हृदय में पुत्रभावनाका अंश विद्यमान है । इन दोनोंके हृदयमें मातृमोह नहीं है। परन्तु माताओंके हृदयमें अभी तक पुत्र भावना विद्यमान है यह तो कर्मको विचित्रता है। वह शरीर के अस्तित्वमें बराबर रहता ही है। पाठकों को पहलेसे ज्ञात है कि बाहुलके तीन पुत्र और अनंत सेनेन्द्र आदि राजा पहिलेसे ही दीक्षा लेकर चले गये हैं। अकीति और आदिराजने स्वयं ही दीक्षा ली। परन्तु उन सबने गंधकुटी पहुँचकर जिनगुरु साक्षीपूर्वक दीक्षा ली है। परन्तु ये तो पिताके तत्त्वोपदेशको बार-बार सुनकर पिता के समान हो आत्माको देखते हुए स्वयं दीक्षित हुए। अन्य लोगों को यह शामध्ये क्शो होता है। अपने अंतरंगको देखकर जो आत्मानुभव करते हैं, उनको आत्मा ही गुरु है । परन्तु जिनको आत्मानुभव करते हैं, उनको दीक्षित होनेके लिए अन्य गुरुकी आवश्यकता है । यही निश्चय व्यवहारकला है । स्याद्वादका रहस्य है । किसी वस्तु के खोनेपर यदि स्वयंको नहीं मिले तो दूसरे अपने स्नेही अन्धुओंको साथ लेकर ढूँढ़ना उचित है । यदि वह पदार्थ स्वयंको हो मिल गया तो दूसरोंकी सहायता की क्या जरूरत है । इन सहोदरोंके दीक्षित होनेके बाद कनकराज, कान्तराज आदि सालोंने भी दीक्षा ली, इसी प्रकार उनके माता-पिता, भाई आदि सभी दीक्षित हुए। एवं सवं बहिनोंने भी दीक्षा ली । भावाजी रत्नाजी, कनकावली आदि बहिनों ने भी अपने पतियोंके साथ ही वैराग्यभरसे दीक्षा ली । भरतेश्वर के रहनेपर तो यह भरतभूमि सम्पत्ति वैभवसे भरित थी। परन्तु उसके चले आनेपर वैराग्य समुद्र उमड़ पड़ा। एवं सर्वत्र व्याप्त हो गया। मोहनीय कर्मका जब सर्वथा अभाव हुआ तभी ममकारका अभाव हुआ। अब तो ये केवली परमनिस्पृह है इसलिए दोनों केवलियोंकी गंधकुटी भिन्न-भिन्न प्रदेशके प्राणियोंके पुष्यानुसार भिन्न-भिन्न दिशामें चली गई । सब लोग जयजयकार कर रहे थे ।
SR No.090101
Book TitleBharatesh Vaibhav
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatnakar Varni
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year
Total Pages730
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Story
File Size16 MB
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