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भरतेश वैभव __ लोकमें स्नेह (तेल) का स्पर्श होनेपर अग्नि अधिक प्रज्वलित होती है। परन्तु ध्यानाग्नि तो स्नेह मोहके संसर्गसे बुझ जाती है। स्नेह जितना दूर हो जाय उतना ही यह ध्यान बढ़ता है, सचमुच में यह विचित्र है।
बाहरके लोग समझते थे कि यह बड़ा भाई है, बड़ा तपस्वी है. यह छोटा भाई है, छोटा तपस्वी है । परन्तु अन्दर म छोटा है और न बड़ा है। दोनोंके हृदयमें निदानन्दमय प्रकाश बराबरीसे बढ़ रहा है ।
लोकमें वय, शरीर, वंश आदिके द्वारा मनुष्योंमें भेद देखनेमें आता है, परन्तु परमार्थसे आत्माको देखनेपर वहाँ कुछ भी भेद नहीं है।
हाय उनके ध्याननिष्ठुरताका क्या वर्णन करना । कपासकी राशिपर दड़ी हुई चिनगारीके समान कर्मकी राशिको वह ध्यानाम्नि लग गई । वर्णन करते विलम्ब क्यों करना चाहिये। उन दोनों तपोधनोंने अपने विशुद्ध ध्यानबलके द्वारा पासिया कर्मको एक साथ नष्ट किया । आश्चर्य है, ढाई घटिकामें कोको नष्ट करनेका महत्व पिताजोके लिए रहने दो शायद इसीलिए कुछ अधिक समय लेकर अर्थात् साढ़े पांच घटिकामें उन्होंने शाति नौ नमः रिया :
पिताने दीक्षा लेते ही घेण्यारोहण किया। परन्तु पुत्रोंने दीक्षा लेकर चार घटिका तक आत्माराममें विश्रांति लेकर अनंतर श्रेण्यारोहण किया । श्रेणिमें तो अन्तमूहर्त हो लगा।
कोंको उन्होंने किस क्रमसे नष्ट किया यह भुजबलियोगिके श्रेण्यारोहणके समय गिनाया है, उसी प्रकार समान लेना चाहिए । कोके नाश होनेपर भरत बाहुनलीके समान ही गुणोंको प्राप्त किया।
कर्कश कर्मोके दुर होनेपर अकीति और आदिराज कोटिचन्द्रार्क प्रकारको पाकर इस भूतलसे ५००० धनुष प्रमाण आकाश प्रदेशमें जा विराजें। चारों ओरसे सुर नरोरगदेव जयजयकार करते हुए आये विशेष स्या ? दोनों केवलियोंको अलग-अलग गंधकुटोका निर्माण किया गया । कमलको स्पर्श न करते हुए कमलासनपर दोनों परमात्मा विराजमान हैं सर्व भव्य जनोंने आकर पूजा की, स्तोत्र किया। वहाँ महोत्सव हुआ ।
देवेन्द्रके प्रश्न पूछनेपर भरत सर्वजने जिस प्रकार उपदेश दिया उसी प्रकार इन केवलियोंने भी घमवर्षा की भरतजिनने जिस प्रकार स्त्रियोंको दीक्षा दी थी, उसी प्रकार इन्होंने भी स्त्रियोंको दीक्षा दी।
उद्दहमति, अष्टचन्द्रराज, अयोध्यांक एवं कुछ अन्य राजाओंने भी